Thursday, June 23, 2011

धनी भिखारिन

मिर्दल मुस्कान ओढ़े
हाथ फैलाती है
खोटे सिक्के
खुश होकर झनझनाती है
...मय्सर नहीं जिसे
किरण की एक बूंद
ओस मल-मलकर

वो रोज नहाती है

प्रकाश-पुंज की सहचरी

अँधेरे में मूह छुपाती है
बेगानी गीत हर पल गुनगुनाती है
खोटे सिक्के
खुश होकर झनझनाती है
आस ही तो डोर है जो
टूटती नहीं
हर दिन कटोरादान लिए
आ खड़ी हो जाती है
मृदुल मुस्कान ओढ़े
हाथ फैलाती है !!!!

Tuesday, June 21, 2011

बाबूजी !!


घर की बुनियादें,दीवारे,बामो -दर थे बाबूजी !

सबको बांधे रखने वाला खास हुनर थे बाबूजी !!

तीन मुहोल्ला में उन जैसी कद-काठी का कोई ना था!


अच्छे -खासे,ऊँचे पुरे कदावर थे बाबूजी!!


अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है !


अम्माजी की सारी सज धज,सब जेवर थे बाबूजी!!


भीतर से खालिश जस्बाती और ऊपर से ठेठ पिता!


अलग,अनूठा,अनबूझा सा एक तेवर थे बाबूजी!!


कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे,कभी हथेली की सूजन!


मेरे मन का आधा साहस,आधा डर थे बाबूजी!!

Sunday, June 19, 2011

जिनसे थे धनवान पिता !

जब तक थे साथ हमारे ,लगते थे इंसान पिता
जाना ये जब दूर हो गए ,सच में थे भगवान् पिता !


पल पल उनकी गोद में पलकर भी हम ये ना जान सके

मेरी एक हसी पर कैसे ,होते थे कुर्बान पिता !


बैठ सिरहाने मेरे गुजरी उनकी जाने रातें कितनी

मेरी जान बचाने खातिर ,दाव लगाते जान पिता !


सर पर रखकर हाथ कापता ,भरते आशीष की झोली

मेरे सौ अपराधो से भी बनते थे अनजान पिता !


पढ़ लिख भी कौन सा बेटा ,बना बुढ़ापे की लाठी?
घोर स्वार्थी कलयुग में भी,कितने थे नादान पिता!


पीड़ा -दुःख आंशु तकलीफे और थकन बूढ़े पाँव की !
मेरे नाम नहीं वो लिख गए जिनसे थे धनवान पिता !


बाट-निहारे रोज निगाहे ,लौट के उनके घर आने की

जाने कौन दिशा में ऐसी,कर गए है प्रस्थान पिता !!!!!

Monday, June 13, 2011

मैं उजाला हू


चाँद तारे आँख में दिन रात रखता हू

मैं उजाला हू अपनी पहचान रखता हू

सामने मेरे अँधेरा टिक नहीं सकता

आतशी हू दहकते अरमान रखता हू

भीतरी किरणों को बाहर बाटने वाले

दीप-जुगनू तक का भी मैं मान रखता हू

मैं समंदर की तरह सहकर सभी कुछ चुप

ओट में हर बूंद की तूफान रखता हू

मैं हवा की कैद में घर को नहीं रखता

दर खुला दिल का खुला दालान रखता हू

गोत्र्र-मजहब जातियों मैं नहीं बटता

सिर्फ अपनी सोच में इंसान रखता हू

एक सा हू देखता हू मैं यहाँ सबको

है सभी में 'एक ही वो' ये धयान रखता हू

Thursday, June 9, 2011

अपराध बोध


वो दृश्य मुझे भुलाये नहीं भूलता
विस्मित हुयी थी तुम कुछ देर को मुझसे
ऑफिस की उल्झंनो की वयस्तता में
कोई पांच साल की थी जब तुम
याद आई जब,लपक कर मैं निकला
पहुँच तुम्हारे स्कूल बदहवासी में
दूर तक सन्नाटे की रेत थी
फैली हुयी
आकाश पर स्याह बादलो का
साया था !
चाहरदीवारी के अन्दर दिखी तुम
बरगद के पेड़ के नीचे गोल
चबूतरे पर खुद में लिपटी हुयी
निरीह खरगोश -सी बैठी
नन्ही हथेलियों में गालो को छुपाये
निगाहे बड़े गेट पर जमाई हुयी उदास
इन्तजार करती पल-पल मेरे आने का
मुस्कुरायी छन् भर को मुझे देख कर
ठिठकी!
फिर दौड़ पड़ी गिरते पड़ते ,बदहवास
नाजुक कंधो पर बस्ते का बोझ लिए
चिपक गयी मुझसे आँखों में बरसात लिए
देखता रहा कोहरे भरी आँखों से तुम्हे
अपराध बोध से दबा हुआ चुपचाप मैं!!!!

अधूरे शहर

अन्खुआये बीज

मिटटी की लिहाफ से

सर निकल कर झाकते हुए

अंकुर!

डूब पर लेती हुयी ओस

ओस भींगे चांदनी के फूल

भींगे कपड़ो में लिपटी हुयी

पगडण्डी !

मदमाते हाथियों से झूमती दरख्त(पेड़)

चिड्रियों के घोसले

बुलबुल के सुर!

झींगुर और दादुर का और्क्रेस्त्रा

जरा सी ओट पाकर

झमाझम बरसात में

छिपते छिपाते जुगाली करते

गाय, बकरिया

चरवाहे,पीपल की छाव

दर्पण जैसे ताल तलैया

बरसो से देखे नहीं

शहर में रहते हुए,

बहुमंजली इमारतों के दरबे में

खुद से खुद ही कुछ कहते

कुछ सुनते हुए!

एक टुकड़ा बादल

एक खिड़की बारिश

एक मुट्ठी सिरहन

अंजुरी भर मौसम

खुल कर कहा जी सके हम !

यहाँ तो निरंतर दवंद(लडाई) है

अधूरे शहर को

जाने किस बात का घमंड है?