Sunday, December 11, 2011
पत्थर बोलते नहीं चुप रहते है !!!!!
जो बोल सकते है वे चुप है
वे अंधे है वे देख नहीं सकते है
जो देख सकते है उनकी आँखें बंद है
वे बहरे है वे सुन नहीं सकते है
जो सुन सकते है
लेकिन सुनना नहीं चाहते है
वे सब खामोश है
क्यूंकि वे ख़ामोशी चाहते है
वे हाड-मांस के पुतले है
फिर भी खामोश है
वे नहीं चाहते है ,सुनना ,बोलना,देखना
अब वे पत्थर हो चुके है
पत्थर बोलते नहीं चुप रहते है !!!!!
Tuesday, November 29, 2011
हिम प्रतिमा
सुबह मैदान में देखी मैंने
एक माँ और बच्चे की हिम प्रतिमा
सारा दिन दर्शको की भीड़
उस प्रकृति निर्मित प्रतिमा को
देखने आती रही
तभी सुना मैंने की वो माँ और बच्चा
जो बर्फीली रात
सर छुपाने की जगह मांग रहे थे
दिनभर से उन्हें किसी ने देखा नहीं है !!!!!!
Monday, November 28, 2011
मैं औरत हू
मुझे मालूम है प्रसव वेदना
सारी अजीयत भूल जाती हू पुत्र को जन्म दे कर
और खुद पुत्री के जन्म पर दुखी हो जाती हू
मैं औरत हू
दो मुट्ठी भात और कपडे के लिए
मुझे हाट -बाजार में बेचा जाता है
और हर जन्म में
पतिवर्त धर्म का पालन करना है
अग्नि-परीछा देनी है
जिन्दगी के रंगमंच पर
कभी माँ तो कभी बहिन
तो कभी एक भावुक -सी
प्रेमिका का अभिनय करना है !!!!
Thursday, November 24, 2011
कविता लिखता हू मैं!!!!
स्टूल पर रखा पंखा
कुर्सियों पर चढ़े मटमैले कवर
टेबल पर रखे हुए चाय के जूठे प्याले
कविता लिखता हू मैं!!!!
मैं मुस्कुराता हू जबरन
ओढ़ ली है हँसी मैंने
कमरे की उमस ही जीवन है मेरा
बंद है सारी खिड़कियाँ
कविता जीता हू मैं !!!!!!!
Thursday, November 17, 2011
अपहरण आज एक उद्योग है!
और उसको मेरा हो जाना अटल अदभूत लगा !!
राजमहलो के इरादे थे बड़े लेकिन मुझे !
झुगियों का उन इरादों में दखल अदभूत लगा!!
अपहरण था जुर्म कल तक आज एक उद्योग है!
इस नयी तकनीक का भी बाहुबल अदभूत लगा !!
जो परायों ने किया अनुमान था उसका मुझे !
घर जो अपनों ने किया मुझसे वो छल अदभूत लगा!!
स्वार्थो की छल में शकुनी से डरता था न मैं !
इसलिए सबको मेरा होना विफल अदभूत लगा!!
बुद्धिजीवी ला न सकेंगे क्या कोई बदलाव भी !
प्रशन जैसा ही मिला उत्तर सरल अदभूत लगा !!
इक - जरा- सी नींद की गोली सुविधा के लिए !
भूलने की खुद को ही करना पहल अदभूत लगा !!
Saturday, November 12, 2011
सफ़र
उम्र भर किस किस के हिस्से का सफ़र मैंने किया !
तू तो नफरत भी ना कर पायेगा इतनी शिद्दत के साथ
जिस बला का प्यार तुझसे बे-खबर मैंने किया!
कैसे बच्चो को बताऊँ रास्तो के पेचो-ख़म(घुमाव-फिराव),
जिन्दगी भर तो किताबो का सफ़र मैंने किया !
शोहरत की नजर कर दी शेर की मासूमियत
इस दिये की रौशनी को दर-ब-दर मैंने किया !
चंद -जस्बातो से रिश्तों के बचाने को"सिद्धार्थ"
कैसा कैसा जब्र (जोर,जबरदस्ती) अपने आप पर मैंने किया !!!
Tuesday, November 8, 2011
डायरी के पन्ने
वो डायरी
जो रखी थी
मेज की दराज में
आज भी संजोयी रखी थी
उसमें
तुम्हारी जेठ में कुम्भ्लाई काया!
आज भी महकता है
आसाढ़ का वो चमकता दिन
हमारी पहली मुलाकात का
तुम्हारी चटकती मुस्कान का !
सहेजे रखे है,
बरसात के भींगे दिन
लिपटी पड़ी है
भादो की गरजती रातें !
रखे है अनमोल पल
जो कातिकी के मेले में
तुम्हारे साथ बिताये !
और
रखी है पूस की
ठिठुरती काली रात
बंद कमरे का वो
एकांकीपन
डायरी के कुछ पन्ने
फटे पड़े है
रखे है उसमें
पतझर के वो झरते सपने !
कुछ पन्ने अब भी अधूरे है
उन्हें इन्तजार है,
फागुन में
तुम्हारे स्पर्श के
हरे भरे एहसास का !!!!
Saturday, November 5, 2011
दामन
नजर आप से ही मिलाना भी है !!
मोहोब्बत का हर भेद पाना भी है !
मगर अपना दामन बचाना भी है !!
जो दिल तेरे गम का निशाना भी है !
कतील-जफा-ऐ-जमाना भी है !!
खिरद की एतात जरुरी सही !
यही तो जूनू का जमाना भी है!!
मुझे आज साहिल पर रोने भी दो!
की तूफान में मुस्कुराना भी है !!
ज़माने से आगे तो बढिए "सिद्धार्थ"!
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है !!
Wednesday, November 2, 2011
रिश्तो के परे जिन्दगी
की ट्रेन में झाड़ू देने वाला बच्चा बेहद खुश था
फर्श बुहार रहा था
और तन्मयता से एक गीत भी गा रहा था
मुझे उसपर बहुत प्यार आया
जब पूरी सफाई कर
हाथ पसारे मेरे पास आया
मैंने एक सिक्का देते हुए नाम पूछा
उसने कहा 'नहीं मालूम'
मैंने उसके घर के बारे में पूछा
उसने कहा 'नहीं मालूम'
मैंने उसके पिता का नाम पूछा
उसने कहा 'नहीं मालूम'
मैं पा गया उसके खुश रहने का कारण
मुझे सब कुछ मालूम था
मुझे हो आया अपना दुःख स्मरण!
Monday, October 31, 2011
ये शहर कैसा है??
कोई कैसा है जहर,कोई जहर कैसा है ??
अपनी अपनी है शाम,अपनी अपनी है सहर
कोई जाने ना किसी को, ये शहर कैसा है??
बस गए है कुछ नए अमीर अब इस बस्ती में
दीन -ईमान नहीं इनका,मगर पैसा है
शोर-गुल,भीड़- भाड़,और धुवा भी कितना
सांस लेता हुआ इनमें ,ये शजर कैसा है ??
तेज रफ़्तार बनी है ये जिन्दगी कितनी ?
हर तरफ जाम लगा है ये सफ़र कैसा है ??
हो गयी कार भी बेकार जाम में "सिद्धार्थ"
उतर कर भाग रहा है जो,बशर कैसा है ?
Saturday, October 29, 2011
खवाब
ना कोई खवाब हमारे है ना ताबीरे है !
हम तो पानी पर बनायीं हुयी तस्वीरे है!!
लुट गए मुफ्त में दोनों ,तेरी दौलत मेरा दिल !
ए दोस्त !तेरी मेरी एक सी तकदीरे है !!
कोई अफवाह गला कट ना डाले अपना !
ये जुबाने है की चलती हुयी शमशीरे है !!
हम तो नक्वादा (अनपढ़)नहीं है तो चलो आओ पढ़े !
वो जो दिवार पर लिखी हुयी तहरीरे है !!
हो ना हो ये कोई सच बोलने वाला है "सिद्धार्थ"!
जिसके हाथों में कलम पाँव में जंजीरे है !!
Tuesday, October 25, 2011
कैसे कहूं दीवाली है
आज की रात ये रौशन है
कल फिर सुबह काली है
झूठी होती इस दुनिया में
... सच का दिया जो खाली है
कैसे कहूं दीवाली है !
टूटी अब हर रिश्तों की डाली है
रिश्ता भी अब एक गाली है
प्यार की बगिया जो खाली है
रोया हर एक माली है
कैसे कहूं दीवाली है !
तिनका तिनका बिखरा भारत अब
घुट घुट कर रोती भारत माता अब
देशप्रेम का उपवन अब ये खाली है
जिसकी भारत माँ ही माली है
कैसे कहूं दीवाली है !
भ्रष्टाचार की गहरी रात ये काली है
नेता करते देश की बिकवाली है
फैला हर ओर धोखा है दलाली है
बेचारी जनता, नेता अत्याचारी है
कैसे कहूं दीवाली है !
देश भक्ति का दिया जो खाली है
देश प्रेम की गर्म रक्त से
सुलग रहे हर देश भक्त से
नयी क्रांति आने वाली है
कैसे कहूं दीवाली है !
जलो तुम स्वरक्त से दिया भर
भारत माँ तुम्हे जगाने वाली हैं
भारत की जगमग ज्योति से
दुनिया हुयी उजाली है
दूर नहीं अब नव भारत की
कुछ ही दूर दीवाली है
पर कैसे कहूं दीवाली है !
दीपावली
अलग -अलग भावो के मैंने अनगिनत दीप धरे!
दीप एक विस्वास का बाला तुलसी के आगे!
जोड़ रहा है दीया द्वार का मन के टूटते धागे!
जले आस्थाओ के दीपक घर,आँगन,कमरे!
रख आया में दीप प्रेम का विश्वासों के तट पर !
और नेह का दीप जलाया हर सुनी चौखट पर !
गीत कई गूंजे सुधियों में फिर भूले बिसरे !
सपनो के रंगों-सी झिलमिल ये बल्बों की लड़िया !
नहा रही है आज रौशनी से घर आँगन गलियां !
फुलझरियों -सी हँसती खुशियाँ झर-झर ज्योति झरे !
आप सभी मित्रो को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये!!!!!
Sunday, September 25, 2011
भाई तुम वहीँ रहोगे न !
जहाँ छोड़कर गयी थी ,
तुम्हारी दी गयी गाड़ी में
तुम्हारे दिए वर के साथ
अनिश्चित भविष्य की ओर!
सर पर चील कौव्वो की तरह
मंडराती दुआओं ,आशीर्वचनों
और सर घुमाती आशाओं
और दूर बहुत दूर दिखती
तुम्हारी डबदबाती आँखों में
समन्वय बिठाती मैं
चली आई थी जब
पकड़ी हुई थी तब मैंने
एक डोर
तुम्हारे पास था जिसका
दूसरा छोर
इस बात को कई साल बीते !
अरसा हुआ !
दुनियावी सर्कस में
ऊपर नीचे होते झूलों में
संतुलन बैठाते!
छोड़ी तो नहीं वो डोर
पर घूम कर सिमट कर .
उलझ कर ,गुच्छा बनी ,
इसडोर के सहारे
कैसे ढूँढूं
तुम्हारे पास छूटा
दूसरा छोर
भाई तुम अब भी वहीँ हो न !
अब भी दौड़ती हूँ जब बेतहाशा
ज़िन्दगी की रेस में
भागते ,हांफते
फिर भी पिछड़ने के भय से
कांपते
रुक के देखने भी नहीं पाती
राह में क्या ,कहाँ छूट गया
क्या जुड़ा,क्या टूट गया !
बस कस के थामे रहती हूँ,
यही गुच्छा गुच्छा डोर
की कभी अगर लौटना चाहूँ
बादलों की ओर
उसी रास्ते सावनों की ओर
कभी मिल गया अगर !
कोई मोड़
तो लौटूगी जरूर !
उसी घर की तरफ!
अपने बचपन की तरफ
तुम मिलोगे न!
भाई तुम वहीँ रहोगे न !
Saturday, September 24, 2011
दिल की आग
ये भी हमारे राह के दिवार हो गए !! फल पक चुका है शाख पे गर्मी की धुप में ! हम पहले नर्म पत्तों की शाख थे मगर ! बाजार में बिकी हुई चीजों की मांग है ! तजा लहू भरा था सुनहरे गुलाब में ! वो सरकशो के पाँव की जंजीर थे कभी !
Wednesday, September 7, 2011
सपना
सपना देखती है !
एक खुले -खुले आँगन का
हरे भरे पेड़ों पर
चेह्चाहती चिडियो का!
पतियों के बीच से छन -छन कर आती धुप में,
झुला झूलते उसके
भोला और गुड्डी
चहचहा रहे है पछियों की तरह !
तंग कोठरी के अँधेरे में भी
देख रही है उनके धुप से उजले मुखड़े !
हासिये से प्याज काटते उसके हाथ
झुला दे रहे है ,सपने में
बच्चो की किलकारी सुनते हुए
हाथ चूल्हे में लकडिया सुलगाते है !
चरमराता धुवाँ पल भर में
भर जाता है ,बारह फुट की खोली में
खांसी से त्रस्त भोला
खांस उठता है जोर से !
गुडिया उसको चुप कराते हुए
अपने आंसू पोछती है की तभी वो
कढाई में छोकती है सब्जी!
छोंक के धुएं में
धुंधला जाती है आँखें उसकी
और धुंधला जाता है
आँखों के पानी में तिरता सपना उसका
खुले आँगन और हरे-भरे पेड़ो का
पानी में धुंधला कर बह जाता है
तिरिस्कृत अपयश सा !!!!
Tuesday, August 16, 2011
फिर भी भारत महान है !!!!
मंगरू के घर
चूल्हा नहीं जला है
और भूख से तड़पकर
पानी पी कर सो गयी है
उसकी बेटी मुनिया
आज फिर किसी
बुधुवा का बेटा
दवा के अभाव
में दम तोड़ दिया है
चिता के लिए
लकड़ी के पैसे नहीं रहने के
कारण
दफना आया है वो
उसकी लाश को
आज फिर किसी इतवारी की इज्जत लुट
हत्या कर दी गयी है
अखबार वालो को एक
अच्छी खबर मिल गयी है
आज फिर किसी
शनिचरा की बेटी
जला दी गयी है
दहेज़ के लिए
एक बीघा जमीन गिरवी रख
क्रियाकर्म का खर्च निकाल पाया है वो
सोमरा का एम.ए
पास बेटा
नौकरी के लिए भटकने के बाद
खोल कर बैठ गया
हडिया(लोकल शराब) की दुकान
पीता है,पिलाता है
ये बात आम है
फिर भी भारत महान है !!!!
Thursday, August 11, 2011
बस तुम थी.......... बस मै था
रात का पहर था
सुनसान सा शहर था
ठिठुर रही थी चांदनी
ठण्ड का कहर था
बस तुम थी
बस मै था
सीप में ज्यों मोती सी थी
दूरियां बस उतनी सी थी
गर्म साँसों की धधक से
लहू में लावा भभक रहा था
बस तुम थी
बस मै था
नजरे फिर दो ऎसी मिली
सागर में कोई नदी मिली
मदहोश वो शमां था
आगोश में जहां था
बस तुम थी
बस मै था
काँधे पर से जब जुल्फ हटा
लगा जैसे कोइ छटा घटा
मानो कोइ सरगम बजी
जब लबो का स्पर्श हुआ
बस तुम थी
बस मै था
सिमट गयी सब दूरियां
कमरे में एक भंवर था
कली कोइ ऐसे खिली
रात गया ठहर सा
बस तुम थी
बस मै था
फिर ना जाने क्या हुआ
जुगनुओं के शोरगुल में
प्यार के कौतहुल में
एक दोनों ऐसे हुए
तुम बस तुम ना रही
मै बस मै ना रहा...--*--*--*--*--*---*--*--
Monday, August 8, 2011
उसकी मुस्कराहट
अपने हाथ पोछ दिए
और बच्ची धीरे धीरे फूल में बदलने लगी
उसकी मुस्कराहट अब
फूल की मुस्कान थी
जो खुशबू बन कर
उड़ रही थी चारो और
उड़ते उड़ते वो खुशबू
जो असल में मुस्कराहट थी
उस नन्ही बच्ची की
एक चिड़िया में बदल गयी
जो फुदकने लगी यहाँ- वहा
अब इस मुस्कराहट के पंख थे
और आवाज भी
अब इससे हर कोई सुन सकता था !
चिड़िया बन कर मुस्कराहट
उड़ने लगी खुले आकाश में
हवा बही हर दिशा में
बहते बहते हवा बदल गयी नदी में
मुस्कराहट अब बह रही थी नदी में
मुस्कुराहट अब बह रही थी नदी बन कर
कही शांत,कही उफान पर
आखिरकार नदी मिल गयी समुन्दर में
और मुस्कराहट फैल गयी पूरी पृथ्वी पर
बच्ची की मुस्कुराहट
अब पृथ्वी की मुस्कुराहट थी!!!!!
Sunday, July 31, 2011
इंसान का दिल
जब भी मैं इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला !
मेरे स्वागत में हरेक जेब से खंजर निकला !!
तितलियों -फूलो का लगता था जहा पर मेला !
प्यार का गाव वो बारूद का दफ्तर निकला !!
डूब कर जिसमें उबर पाया ना मैं जीवनभर !
एक आंसू का वो कतरा तो समंदर निकला !!
मेरे होठो पर दुआ,उसकी जुबान पर गाली !
जिसके अन्दर जो छिपा था वो निकला !!
जिन्दगी भर मैं जिसे देखकर इतराता रहा !
मेरा सबकुछ वो मिटटी की धरोहर निकला !!
क्या अजब चीज है इंसान का दिल भी "सिद्धार्थ" !
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला !!
पलक-तूलिका
कर जीवन-पथ मे छांह गया
अनदेखे कोमल तंतु से
कोई उलझी लटें संवार गया
एक ऐसी सरस बयार चली
अंतस को सुना मल्हार चली
तेरे बोलों की बांसुरिया
प्राणों मे सुर संचार चली
तन बजने लगा मंजीरा सा
मन मतवाला हुआ मीरा सा
दिन-रैन नेह की होली ने
जीवन रंग दिया अबीरा सा
मैना मनकी बोले भोली
रग-रग मे करती ठिठोली
पलकों की झुकी तूलिका ने
तन-मन मे रंग दी रंगोली
Thursday, July 28, 2011
हिसाब
अब अपनी रूह के छालो का कुछ "हिसाब" करू !
मैं चाहता था चरागों को आफताब करू !!
बुतों से मुझको इजाजत अगर कभी मिल जाये !
तो शहर भर के खुदाओ को बेनकाब करू !!
मैं करवटों के नए जाएके लिखू शब् भर !
ये इश्क है तो कहा जिन्दगी अजाब करू !!
है मेरे चारो तरफ भीड़ गुंगो बहरो की !
किसे खातिब बनाऊँ किसे ख़िताब करू !!
उस आदमी को बस एक धुन सवार रहती है !
बहुत हासिल है ये दुनिया इससे ख़राब करू !!
ये जिन्दगी जो मुझे कर्ज़दार करती रही !
कही अकेले में मिल जाये तो हिसाब करू!!!!!
Monday, July 25, 2011
गोहरबार(मोती का पानी)
वोही डूबा हुआ पाया गया हू !!
बला(मुसीबत) काफी ना थी एक जिन्दगी की !
दुबारा याद फ़रमाया गया हू !!
सुपुर्द-ऐ-ख़ाक(दफनाना) ही करना है मुझको !
तो फिर काहे को नहलाया गया हू !!
गोहरबार(मोती का पानी) हू मैं !
मगर आँखों से बरसाया गया हू !!
"सिद्धार्थ"अहले जब कब मानते है !
बड़े जोरो से मनवाया गया हू !!Saturday, July 9, 2011
जुबान
अब आ चुका है लबो पर मुआमला दिल का !!
किसी से क्या हो तपिश में मुकाबिला दिल का !
जिगर को आँख दिखाता है अबला दिल का !!
कसूर तेरी निगाह का है ,क्या खता उसकी !
लगावातो ने बढाया है हौसला दिल का !!
शबाब आते ही ऐ काश मौत भी आती !
उभारता है इसी सिन में वल्बाला दिल का !!
हमारी आँख में भी अश्क -ऐ-गम ऐसे है !
की जिसके आगे भरे पानी अबला दिल का !!
कुछ और भी तुझे ऐ"सिद्धार्थ"बात आती है !
वोही बुतों की शिकायत वोही गिला दिल का !!
Thursday, July 7, 2011
कमी ढूंढते रहे !!
वे मेरे अंगने में कमी ढूंढते रहे !!
चेहरे पर अपने एतबार इतना था हमे !
हम अपने आईने में कमी ढूंढते रहे !!
अपनी कमाई जिनके बीच बांटता रहा !
वो मेरे बाँटने में कमी ढूंढते रहे !!
जिनके पालने में झूल-झूल कर बड़े हुए !
फिर अपने पालने में कमी ढूंढते रहे !!
बेटी का हाथ थाम लिया बिन दहेज़ के !
सब लोग पाहुन(बेटी का पति)में कमी ढूंढते रहे !!
वो प्यार के सिखा गए हम को मायने !
हम उनके मायने में कमी ढूंढते रहे !!
Thursday, June 23, 2011
धनी भिखारिन
हाथ फैलाती है
खोटे सिक्के
खुश होकर झनझनाती है
...मय्सर नहीं जिसे
किरण की एक बूंद
ओस मल-मलकर
वो रोज नहाती है
प्रकाश-पुंज की सहचरी
अँधेरे में मूह छुपाती है
बेगानी गीत हर पल गुनगुनाती है
खोटे सिक्के
खुश होकर झनझनाती है
आस ही तो डोर है जो
टूटती नहीं
हर दिन कटोरादान लिए
आ खड़ी हो जाती है
मृदुल मुस्कान ओढ़ेहाथ फैलाती है !!!!
Tuesday, June 21, 2011
बाबूजी !!
सबको बांधे रखने वाला खास हुनर थे बाबूजी !!
तीन मुहोल्ला में उन जैसी कद-काठी का कोई ना था!
अच्छे -खासे,ऊँचे पुरे कदावर थे बाबूजी!!
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है !
अम्माजी की सारी सज धज,सब जेवर थे बाबूजी!!
भीतर से खालिश जस्बाती और ऊपर से ठेठ पिता!
अलग,अनूठा,अनबूझा सा एक तेवर थे बाबूजी!!
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे,कभी हथेली की सूजन!
मेरे मन का आधा साहस,आधा डर थे बाबूजी!!
Sunday, June 19, 2011
जिनसे थे धनवान पिता !
जाना ये जब दूर हो गए ,सच में थे भगवान् पिता !
पल पल उनकी गोद में पलकर भी हम ये ना जान सके
मेरी एक हसी पर कैसे ,होते थे कुर्बान पिता !
बैठ सिरहाने मेरे गुजरी उनकी जाने रातें कितनी
मेरी जान बचाने खातिर ,दाव लगाते जान पिता !
सर पर रखकर हाथ कापता ,भरते आशीष की झोली
मेरे सौ अपराधो से भी बनते थे अनजान पिता !
पढ़ लिख भी कौन सा बेटा ,बना बुढ़ापे की लाठी?
घोर स्वार्थी कलयुग में भी,कितने थे नादान पिता!
पीड़ा -दुःख आंशु तकलीफे और थकन बूढ़े पाँव की !
मेरे नाम नहीं वो लिख गए जिनसे थे धनवान पिता !
बाट-निहारे रोज निगाहे ,लौट के उनके घर आने की
जाने कौन दिशा में ऐसी,कर गए है प्रस्थान पिता !!!!!