कल तमाम रात बाहर बर्फ गिरती रही
सुबह मैदान में देखी मैंने
एक माँ और बच्चे की हिम प्रतिमा
सारा दिन दर्शको की भीड़
उस प्रकृति निर्मित प्रतिमा को
देखने आती रही
तभी सुना मैंने की वो माँ और बच्चा
जो बर्फीली रात
सर छुपाने की जगह मांग रहे थे
दिनभर से उन्हें किसी ने देखा नहीं है !!!!!!
Tuesday, November 29, 2011
Monday, November 28, 2011
मैं औरत हू
मैं औरत हू
मुझे मालूम है प्रसव वेदना
सारी अजीयत भूल जाती हू पुत्र को जन्म दे कर
और खुद पुत्री के जन्म पर दुखी हो जाती हू
मैं औरत हू
दो मुट्ठी भात और कपडे के लिए
मुझे हाट -बाजार में बेचा जाता है
और हर जन्म में
पतिवर्त धर्म का पालन करना है
अग्नि-परीछा देनी है
जिन्दगी के रंगमंच पर
कभी माँ तो कभी बहिन
तो कभी एक भावुक -सी
प्रेमिका का अभिनय करना है !!!!
मुझे मालूम है प्रसव वेदना
सारी अजीयत भूल जाती हू पुत्र को जन्म दे कर
और खुद पुत्री के जन्म पर दुखी हो जाती हू
मैं औरत हू
दो मुट्ठी भात और कपडे के लिए
मुझे हाट -बाजार में बेचा जाता है
और हर जन्म में
पतिवर्त धर्म का पालन करना है
अग्नि-परीछा देनी है
जिन्दगी के रंगमंच पर
कभी माँ तो कभी बहिन
तो कभी एक भावुक -सी
प्रेमिका का अभिनय करना है !!!!
Thursday, November 24, 2011
कविता लिखता हू मैं!!!!
कमरे में शोर मचाता
स्टूल पर रखा पंखा
कुर्सियों पर चढ़े मटमैले कवर
टेबल पर रखे हुए चाय के जूठे प्याले
कविता लिखता हू मैं!!!!
मैं मुस्कुराता हू जबरन
ओढ़ ली है हँसी मैंने
कमरे की उमस ही जीवन है मेरा
बंद है सारी खिड़कियाँ
कविता जीता हू मैं !!!!!!!
स्टूल पर रखा पंखा
कुर्सियों पर चढ़े मटमैले कवर
टेबल पर रखे हुए चाय के जूठे प्याले
कविता लिखता हू मैं!!!!
मैं मुस्कुराता हू जबरन
ओढ़ ली है हँसी मैंने
कमरे की उमस ही जीवन है मेरा
बंद है सारी खिड़कियाँ
कविता जीता हू मैं !!!!!!!
Thursday, November 17, 2011
अपहरण आज एक उद्योग है!
मुझको उसका इस तरह होना विकल लगा !
और उसको मेरा हो जाना अटल अदभूत लगा !!
राजमहलो के इरादे थे बड़े लेकिन मुझे !
झुगियों का उन इरादों में दखल अदभूत लगा!!
अपहरण था जुर्म कल तक आज एक उद्योग है!
इस नयी तकनीक का भी बाहुबल अदभूत लगा !!
जो परायों ने किया अनुमान था उसका मुझे !
घर जो अपनों ने किया मुझसे वो छल अदभूत लगा!!
स्वार्थो की छल में शकुनी से डरता था न मैं !
इसलिए सबको मेरा होना विफल अदभूत लगा!!
बुद्धिजीवी ला न सकेंगे क्या कोई बदलाव भी !
प्रशन जैसा ही मिला उत्तर सरल अदभूत लगा !!
इक - जरा- सी नींद की गोली सुविधा के लिए !
भूलने की खुद को ही करना पहल अदभूत लगा !!
और उसको मेरा हो जाना अटल अदभूत लगा !!
राजमहलो के इरादे थे बड़े लेकिन मुझे !
झुगियों का उन इरादों में दखल अदभूत लगा!!
अपहरण था जुर्म कल तक आज एक उद्योग है!
इस नयी तकनीक का भी बाहुबल अदभूत लगा !!
जो परायों ने किया अनुमान था उसका मुझे !
घर जो अपनों ने किया मुझसे वो छल अदभूत लगा!!
स्वार्थो की छल में शकुनी से डरता था न मैं !
इसलिए सबको मेरा होना विफल अदभूत लगा!!
बुद्धिजीवी ला न सकेंगे क्या कोई बदलाव भी !
प्रशन जैसा ही मिला उत्तर सरल अदभूत लगा !!
इक - जरा- सी नींद की गोली सुविधा के लिए !
भूलने की खुद को ही करना पहल अदभूत लगा !!
Saturday, November 12, 2011
सफ़र
क्या बताऊँ कैसे खुद को दर बदर मैंने किया
उम्र भर किस किस के हिस्से का सफ़र मैंने किया !
तू तो नफरत भी ना कर पायेगा इतनी शिद्दत के साथ
जिस बला का प्यार तुझसे बे-खबर मैंने किया!
कैसे बच्चो को बताऊँ रास्तो के पेचो-ख़म(घुमाव-फिराव),
जिन्दगी भर तो किताबो का सफ़र मैंने किया !
शोहरत की नजर कर दी शेर की मासूमियत
इस दिये की रौशनी को दर-ब-दर मैंने किया !
चंद -जस्बातो से रिश्तों के बचाने को"सिद्धार्थ"
कैसा कैसा जब्र (जोर,जबरदस्ती) अपने आप पर मैंने किया !!!
उम्र भर किस किस के हिस्से का सफ़र मैंने किया !
तू तो नफरत भी ना कर पायेगा इतनी शिद्दत के साथ
जिस बला का प्यार तुझसे बे-खबर मैंने किया!
कैसे बच्चो को बताऊँ रास्तो के पेचो-ख़म(घुमाव-फिराव),
जिन्दगी भर तो किताबो का सफ़र मैंने किया !
शोहरत की नजर कर दी शेर की मासूमियत
इस दिये की रौशनी को दर-ब-दर मैंने किया !
चंद -जस्बातो से रिश्तों के बचाने को"सिद्धार्थ"
कैसा कैसा जब्र (जोर,जबरदस्ती) अपने आप पर मैंने किया !!!
Tuesday, November 8, 2011
डायरी के पन्ने
कल अचानक याद आई
वो डायरी
जो रखी थी
मेज की दराज में
आज भी संजोयी रखी थी
उसमें
तुम्हारी जेठ में कुम्भ्लाई काया!
आज भी महकता है
आसाढ़ का वो चमकता दिन
हमारी पहली मुलाकात का
तुम्हारी चटकती मुस्कान का !
सहेजे रखे है,
बरसात के भींगे दिन
लिपटी पड़ी है
भादो की गरजती रातें !
रखे है अनमोल पल
जो कातिकी के मेले में
तुम्हारे साथ बिताये !
और
रखी है पूस की
ठिठुरती काली रात
बंद कमरे का वो
एकांकीपन
डायरी के कुछ पन्ने
फटे पड़े है
रखे है उसमें
पतझर के वो झरते सपने !
कुछ पन्ने अब भी अधूरे है
उन्हें इन्तजार है,
फागुन में
तुम्हारे स्पर्श के
हरे भरे एहसास का !!!!
वो डायरी
जो रखी थी
मेज की दराज में
आज भी संजोयी रखी थी
उसमें
तुम्हारी जेठ में कुम्भ्लाई काया!
आज भी महकता है
आसाढ़ का वो चमकता दिन
हमारी पहली मुलाकात का
तुम्हारी चटकती मुस्कान का !
सहेजे रखे है,
बरसात के भींगे दिन
लिपटी पड़ी है
भादो की गरजती रातें !
रखे है अनमोल पल
जो कातिकी के मेले में
तुम्हारे साथ बिताये !
और
रखी है पूस की
ठिठुरती काली रात
बंद कमरे का वो
एकांकीपन
डायरी के कुछ पन्ने
फटे पड़े है
रखे है उसमें
पतझर के वो झरते सपने !
कुछ पन्ने अब भी अधूरे है
उन्हें इन्तजार है,
फागुन में
तुम्हारे स्पर्श के
हरे भरे एहसास का !!!!
Saturday, November 5, 2011
दामन
जिगर और दिल को बचाना भी है !
नजर आप से ही मिलाना भी है !!
मोहोब्बत का हर भेद पाना भी है !
मगर अपना दामन बचाना भी है !!
जो दिल तेरे गम का निशाना भी है !
कतील-जफा-ऐ-जमाना भी है !!
खिरद की एतात जरुरी सही !
यही तो जूनू का जमाना भी है!!
मुझे आज साहिल पर रोने भी दो!
की तूफान में मुस्कुराना भी है !!
ज़माने से आगे तो बढिए "सिद्धार्थ"!
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है !!
नजर आप से ही मिलाना भी है !!
मोहोब्बत का हर भेद पाना भी है !
मगर अपना दामन बचाना भी है !!
जो दिल तेरे गम का निशाना भी है !
कतील-जफा-ऐ-जमाना भी है !!
खिरद की एतात जरुरी सही !
यही तो जूनू का जमाना भी है!!
मुझे आज साहिल पर रोने भी दो!
की तूफान में मुस्कुराना भी है !!
ज़माने से आगे तो बढिए "सिद्धार्थ"!
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है !!
Wednesday, November 2, 2011
रिश्तो के परे जिन्दगी
एक दिन मैंने देखा
की ट्रेन में झाड़ू देने वाला बच्चा बेहद खुश था
फर्श बुहार रहा था
और तन्मयता से एक गीत भी गा रहा था
मुझे उसपर बहुत प्यार आया
जब पूरी सफाई कर
हाथ पसारे मेरे पास आया
मैंने एक सिक्का देते हुए नाम पूछा
उसने कहा 'नहीं मालूम'
मैंने उसके घर के बारे में पूछा
उसने कहा 'नहीं मालूम'
मैंने उसके पिता का नाम पूछा
उसने कहा 'नहीं मालूम'
मैं पा गया उसके खुश रहने का कारण
मुझे सब कुछ मालूम था
मुझे हो आया अपना दुःख स्मरण!
की ट्रेन में झाड़ू देने वाला बच्चा बेहद खुश था
फर्श बुहार रहा था
और तन्मयता से एक गीत भी गा रहा था
मुझे उसपर बहुत प्यार आया
जब पूरी सफाई कर
हाथ पसारे मेरे पास आया
मैंने एक सिक्का देते हुए नाम पूछा
उसने कहा 'नहीं मालूम'
मैंने उसके घर के बारे में पूछा
उसने कहा 'नहीं मालूम'
मैंने उसके पिता का नाम पूछा
उसने कहा 'नहीं मालूम'
मैं पा गया उसके खुश रहने का कारण
मुझे सब कुछ मालूम था
मुझे हो आया अपना दुःख स्मरण!
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