Sunday, January 8, 2012

इरादा

एक गजल उसपर लिखू दिल का तकाजा है बहुत
इन दिनों खुद से बिछड़ जाने का इरादा है बहुत

रात हो ,दिन हो,गफलत हो , की बेदारी हो
उसको देखा तो नहीं है,उसे सोचा है बहुत

तिस्नगी के भी मकामत है क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफी ,कभी कतरा है बहुत

मेरे हाथो की लकीरों के इजाफे है गवाह
मेरे पत्थर की तरह खुद को तराशा है बहुत

कोई आया है जरुर और ठहरा भी है
घर की देहलीज़ पर ऐ"सिद्धार्थ" उजाला है बहुत

7 comments:

  1. वाह...
    कृष्ण बिहारी "नूर" जी की गज़ल है...
    बहुत खूब.

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  2. वाह ...बहुत ही उम्दा

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  3. बहुत सुन्दर शेर लिखे आपने ......बधाई......
    मेरा ब्लॉग पढने के लिए इस लिंक पे आयें ....
    http://dilkikashmakash.blogspot.com/

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