एक गजल उसपर लिखू दिल का तकाजा है बहुत
इन दिनों खुद से बिछड़ जाने का इरादा है बहुत
रात हो ,दिन हो,गफलत हो , की बेदारी हो
उसको देखा तो नहीं है,उसे सोचा है बहुत
तिस्नगी के भी मकामत है क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफी ,कभी कतरा है बहुत
मेरे हाथो की लकीरों के इजाफे है गवाह
मेरे पत्थर की तरह खुद को तराशा है बहुत
कोई आया है जरुर और ठहरा भी है
घर की देहलीज़ पर ऐ"सिद्धार्थ" उजाला है बहुत
वाह...
ReplyDeleteकृष्ण बिहारी "नूर" जी की गज़ल है...
बहुत खूब.
वाह ...बहुत ही उम्दा
ReplyDeleteवाह, बहुत ही अच्छी..
ReplyDeleteवाह, बहुत ही अच्छी..
ReplyDeleteबहुत खूब.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शेर लिखे आपने ......बधाई......
ReplyDeleteमेरा ब्लॉग पढने के लिए इस लिंक पे आयें ....
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बहुत खूब ...
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