समंदर से उठे है या नहीं बादल ये रब जाने !
नजूमी बाढ़ का मंजर लगे खेतों को दिखलाने !!
नमक से अब भी सूखी रोटियां मजदूर खाते है !
भले "सिद्धार्थ"ने लिखे हो इनके अफ़साने !!
रईसी देखनी है मुल्क की तो क्यूँ भटकते हो!
सियासत्दा का घर देखो या फिर मंदिर के तहखाने !!
मुसाफिर छोड़ दो चलना ये रास्ते है तबाही के !
यहाँ हर मोड़ पर मिलते है साकी और मयखाने !!
चलो जंगल से पूछे या फिर पढ़े मौसम की ख़ामोशी !
परिंदे उड़ तो सकते है मगर गाते नहीं गाने !!
ये वो बस्ती है जिसमें सूर्य की किरण नहीं पहुंची !
करोगे जानकर भी क्या ये सूरज-चाँद के माने !!
सफ़र में साथ चलकर हो गए हम और भी तन्हा !
ना उनको हम कभी जाने ना वो हमको ही पहचाने!!
नजूमी बाढ़ का मंजर लगे खेतों को दिखलाने !!
नमक से अब भी सूखी रोटियां मजदूर खाते है !
भले "सिद्धार्थ"ने लिखे हो इनके अफ़साने !!
रईसी देखनी है मुल्क की तो क्यूँ भटकते हो!
सियासत्दा का घर देखो या फिर मंदिर के तहखाने !!
मुसाफिर छोड़ दो चलना ये रास्ते है तबाही के !
यहाँ हर मोड़ पर मिलते है साकी और मयखाने !!
चलो जंगल से पूछे या फिर पढ़े मौसम की ख़ामोशी !
परिंदे उड़ तो सकते है मगर गाते नहीं गाने !!
ये वो बस्ती है जिसमें सूर्य की किरण नहीं पहुंची !
करोगे जानकर भी क्या ये सूरज-चाँद के माने !!
सफ़र में साथ चलकर हो गए हम और भी तन्हा !
ना उनको हम कभी जाने ना वो हमको ही पहचाने!!
बेहतरीन ग़ज़ल....बहुत खूब.....
ReplyDeleteहर शेर विचारणीय..
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