Monday, January 30, 2012

भोर नहा कर चली गयी !!!

धुप देर से आई
जल्दी चल गयी!
किसे पता,जादूगरनी
किस गली चल गयी!

हवा बड़ी मुहजोर
किसी की एक नहीं सुनती है
बागो की हरियाली
बैठे स्वेटर बुनती है

पारदर्शी परदे
पानीदार पड़े
जरा झलक दिखलाई
भीतर चली गयी!

फौजी कम्बल ओढ़े
सिक्रुड़े बैठे टीले है
केश सुबह के देखो
अब तक पूरे गिले है !

दूर -दूर तक पगडण्डी पर
बुँदे बिखरी है
किसी नदी में भोर
नहा कर चली गयी!

सनाटा है ,शोर
बर्फ सा कैसा जमा हुआ
रोम रोम में सबके जैसे
जाड़ा रमा हुआ

सबको घर जाने की
कितनी जल्दी है
खुश्बू आई,
आँख बचा कर चली गयी !!!


Wednesday, January 18, 2012

क्योंकि तुम मुझे मुझसे ज़्यादा जानती हो।

मुझे आज तक
कभी तुमसे कुछ कहना नहीं पड़ा
तुम हमेशा
मुझे देखकर समझ जाती हो
…कि आज ‘मूड’ अच्छा है,
... …कि आज कुछ उखड़ा-उखड़ा है।
…कि आज हम घंटों बतियाएंगे
…कि आज बिना हाथ हिलाए ही
चले जाएंगे
अपने-अपने घर!

तुम्हें
अक़्सर पता होता है
कि कब मुझे तुम्हारा हाथ चाहिए
ताली मारने के लिये,
…ठहाका लगाने से पहले।
और कब तुम्हारा कंधा,
देर तक सुबकने के लिए!

तुमने कई बार मेरे शक़ को यक़ीन मे बदला है
कि सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम ही
मुझे मुझसे ज़्यादा जानती हो।
और इसीलिए
मैं आज तक
तुमसे कभी नहीं कह पाया
कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ।

क्योंकि हमेशा मुझे लगा
कि शायद मैं तुमसे प्यार करता ही नहीं
अगर करता
तो तुम बहुत पहले ही मुझे बता चुकी होतीं
…क्योंकि तुम
मुझे मुझसे ज़्यादा जानती हो।

Sunday, January 8, 2012

इरादा

एक गजल उसपर लिखू दिल का तकाजा है बहुत
इन दिनों खुद से बिछड़ जाने का इरादा है बहुत

रात हो ,दिन हो,गफलत हो , की बेदारी हो
उसको देखा तो नहीं है,उसे सोचा है बहुत

तिस्नगी के भी मकामत है क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफी ,कभी कतरा है बहुत

मेरे हाथो की लकीरों के इजाफे है गवाह
मेरे पत्थर की तरह खुद को तराशा है बहुत

कोई आया है जरुर और ठहरा भी है
घर की देहलीज़ पर ऐ"सिद्धार्थ" उजाला है बहुत