Thursday, April 28, 2011

बूढ़े बरगदो

पतझर आता जाता है


फिर,नए मौसम होते है


नयी कलियाँ खिलती है


मगर बूढ़े बरगदो के वो ही


जस्बात होते है


जीवन की तपती धुप में


कोई मौसम हो


राही के साथी बन कर


शीतल छाव देते है


बूढ़े बरगदो के साए


सौगाते होते है


पैदा हुए और पाले


पेड़ के नीचे


वे ही नाग बनकर


जड़े खोखली करते है


फिर भी,बूढ़े बरगदो के


हौसले कम नहीं होते !


जहा लोगो के दिल में


अविश्वास के पौधे


पनपते रहते है


दोस्त हो या अपने


अब लोग,


गले नहीं मिलते


वह मधुर रिश्ते


नहीं होते है


इसलिए इस दौर में


कही बूढ़े बरगद के


साये नहीं होते !


अब हर जगह


बूढ़े बरगद नहीं मिलते


जहा होते है


राही का साथी बन कर


शीतल छाव देते है


बुद्धे बरगदो के


साये सौगात होते है !!!!



Wednesday, April 27, 2011

लघुकथा :-स्वाभिमान

उसके कापते हाथ बड़ी देर से भोजन की थाली
में यूँ ही कुछ टटोल रहे थे !
आज तरकारी कुछ जयादा ही स्वादिस्ट बनी थी,
लेकिन थाली में रोटी ख़तम हो गयी थी!
यह सब देख कर पास खड़े पोते ने तपाक से कहा -"आपको कुछ चाहिए?
उसे निहारते हुए,
उन्होंने जवाब दिया -'रहने दे,तुझसे नहीं होगा!'
'मम्मी,मम्मी !'पोता चिलाया !
बहु का नाम सुनते ही
अंगूठे और अंगुली के बीच का चटकारा जबान के बीच ही रह गया !
आँखों और गले के बीच आंसुओं की बुँदे फस गयी!
शर्म से वो बोली "-नहीं बेटा!

पेट कुछ जयादा भर गया है !'

Tuesday, April 26, 2011

मुट्ठीभर धूप

लोग भटक रहे है ,आज
मुट्ठीभर धूप की तलाश में
वो धूप,जो कभी
झाका करती थी
खिड़की के झरोखों से
दरवाजे की झिरियों के पेड़ो के झुरमुट से,
बदलते मौसम के परिवेश ने
सीखा दिया है,धूप को भी
आवरण में लिपट कर रहना
डरती है धूप भी
कोई छीन ना ले
उसकी आजादी
और छोड़ दे उसे यूँ ही
अनाथ धूप में
भटकने के लिए
इसलिए धूप ने आजकल
झरोखो से झाकना छोड़ दिया है !!!!

Saturday, April 23, 2011

मेरी इल्तिजा


बला से वो दुश्मन हुआ करता है !
वो काफ़िर सनम हुआ करता है !!

किसी की तपिश (जलन) में ख़ुशी है !
किसी की खलिश (तकलीफ) में मजा है किसी का !!

जरा दाल दो अपनी जुल्फों का साया !
मुकद्दर बड़ा नरसा (ख़राब) है किसी का !!


मेरी बज्म में आकर पूछते है !


बुरा हाल है हमने सुना है किसी का !!


मेरी इल्तिजा पर बिगड़कर वो बोले !

नहीं मानते इसमें क्या है किसी का!!


बहाजिर(देखने में )ना जाने,ना जाने ,ना जाने!


तुझे "सिद्धार्थ"दिल जानता है किसी का !!!

Thursday, April 14, 2011

प्यार बाद में...करना पहले भरोसा तो करना सीखो


कश्तियाँ प्यार की रेत पर नही चलती.....
कश्तियाँ प्यार की
रेत पर नही चलती

यकीं नही है तो
कह
कियू नही देती
आखिर तुम्हे किसने रोका है ..?
प्रणय के उपवन में हारें कैसे लाएगी
बसंत
जब तक न होगा
शक और सवालों का अंत
जब गुलो के शजर ही न होंगे
गर जड़े ही न होंगी

यकीन की जमीं में
वो दरख्त..
कैसे फूलेंगे फलेंगे

जिन्दगी दो तरह से जीते है
लोग
इक जिनकी ऊँगली
पकड कर जिन्दगी
उन्हें चलना सिखाती है
दुसरे वो ..
जो जिन्दगी को
चलना सिखाते है
बांह मरोड़ कर उसकी
चाहें जंहा ले जातें है ..
कई जिद के आगे हार जाते है
तो कुछ जिद पर
जब अड़ जातें है
तो तकदीर तस्वीर और ताबीर
बदल देते है .
उनको इतना यकीन . होता है

खुद के फैसलों और अपनी जिद पर

और वो खोखले नही होते

वो जमाने के लिए कुछ भी हो

खुद के लिए दोगले नही होते

या तो रुक जाओ ..
डरते डरते सफर मत करो
चल पड़े हो तो कभी मत रुको

मृत्यु के बाद भी ..

या तो रुक जाओ ...
या फिर अविरल बह जाओ ..
मै इन्तजार करूंगा तुम्हारा .
.
जबाब दो तो भी

वर्ना तुम्हारे मौन मै ही पढ़ लूँगा

तुम्हारे मन की बात ..

हो गर तुम्हे खुद पर विश्वास

तो ही करना तुम मुझ पर विश्वाश

प्यार बाद में...
करना
पहले भरोसा तो करना सीखो

Monday, April 11, 2011

प्रेयसी

मेरी इस "प्रेयसी" नामक कविता का आनन्द लीजिये और अपनी प्रतिक्रिया दीजिये.......

छोड़ देता हूँ निढाल
अपने को उसकी बाँहों में
बालों में अंगुलियाँ फिराते-फिराते
हर लिया है हर कष्ट को उसने.

एक शिशु की तरह
सिमटा जा रहा हूँ
उसकी जकड़न में
कुछ देर बाद
ख़त्म हो जाता है
द्वैत का भाव.

ग़हरी साँसों के बीच
उठती-गिरती धड़कनें
खामोश हो जाती हैं
और मिलाने लगती हैं आत्मायें
मानों जन्म-जन्म की प्यासी हों.

ऐसे ही किसी पल में
साकार होता है
एक नव जीवन का स्वप्न.

पानी ने हमसे कुछ नहीं कहा!


पानी ने हमसे कुछ नहीं कहा!
पानी ने शेर से कहा
शेर ने समझा और उस दिन से नहाना छोड़ दिया!

उसने मछली से कहा

सारी मछलियाँ पहरेदारी करने उतर गयी पानी में
उट ने अपने दिल के पास रखा पानी
की पानी बाहर की जगह अन्दर बचाया जाये!

पेड़ो ने मिटटी में मिलकर पाया पानी
पानी को छोड़ कर कहा जायेंगे
की पेड़ मरने के बाद एक ही जगह खड़े रहते है !
जब पानी के पास
बचा होगा
आखिरी बार का कहना
तब भी उसने इंसानों से कुछ नहीं कहा होगा!
शायद इस उम्मीद में
की
इंसान ने जीवन की सबसे खुबसूरत चीजो
को
बिना कहे ही समझा है !!!!!

Sunday, April 10, 2011

कुछ रात कटे !!

इश्क के शोले भडकाओ की कुछ रात कटे !
दिल के अंगारे दहकाओ की कुछ रात कटे !!

हिज्र्र में मिलने शब्--माह के गम आये है !
चारासाजो को भी बुलवाओ की कुछ रात कटे !!

कोई जलता ही नहीं कोई पिघलता ही नहीं !
मोम बन जाओ पिघल जाओ की कुछ रात कटे !!

आज हो जाने दो हर एक को बदमस्त --ख़राब !
आज एक एक को पिघलाओ की कुछ रात कटे !!

Sunday, April 3, 2011

अपनी मौत की खबर

दिल को भी हम राह पर लाते रहे है !
खुद को भी कुछ-कुछ समझाते रहे है!!

चादर अपनी बढे -घटे ये फ़िक्र नहीं !
पाँव यूँ ही हम फैलाते रहते है !!

चुगने देते है चिड़ियों को खेत अपने !
फिर यूँ ही बैठे पछताते रहते है !!

तपिश बदन की बढती है जब फुरकत(विरह) में !
नल के नीचे बैठ कर नहाते रहते है !!

रात भिगोते है दामन को अश्को से !
सुबह धुप में उसे सुखाते रहते है ! !

कही किसी की नजर ना हमको लग जाये !
अपनी मौत की खबर उड़ाते रहते है !!

Friday, April 1, 2011

मैं फिर से हार जाता हूँ!!!!!


कभी रिश्ता कहीं छूटे, कभी वादा कोई टूटे

कभी मैं रूठ जाऊँ या कभी मुझसे कोई रूठे

कभी तकरार की खातिर,

कभी या प्यार की खातिर

वही आँसू भरा नगमा मैं फिर से गुनगुनाता हूँ

वो फिर से जीत जाता है, मैं फिर से हार जाता हूँ

तुम्हारी आँख का आँसू मेरी पलको पे छा जाये

तुम्हारा दर्द सीने का, मेरी किस्मत में आ जाये

तेरे जीवन का हर नश्तर

तुम्हारी राह का पत्थर

मेरे फटते हुए दामन में मैं भरता ही जाता हूँ

वो फिर से जीत जाता है, मैं फिर से हार जाता हूँ

दिल की जो है ख्वाहिश कभी पूरी ना कर पाऊँ

कभी किस्मत नचाये और मैं नचता चला जाऊँ

कभी जीवन बने उलझन

कभी जीना बने बंधन

जिसे दिल में दबाये होठों से मैं मुस्कुराता हूँ

वो फिर से जीत जाता है, मैं फिर से हार जाता हूँ

कभी वो पास होता है तो फिर अहसास होता है

कि चाहे कुछ भी हो जाये मनुज तो दास होता है

मेरा अधिकार झूठा है

और ये संसार झूठा है

कोई सच मिल ही जायेगा, यही सपना सजाता हूँ

वो फिर से जीत जाता है, मैं फिर से हार जाता हूँ

नाम

नहीं, नहीं
इसे नाम ना दो.
इतनी भावनायें, इतना प्यार
इतनी विविधता
'एक' नाम में कैसे आ सकेगा?
नाम दे कर तुम अधूरा बना दोगी इसे.
क्युंकि नाम देना, बांधना है.

किसी ने मुझे नाम दे दिया.
अब मैं सिर्फ़ 'सिद्धार्थ ' ही हूँ
चाहूँ,
तो भी वैभव, आशीष या राधिका नहीं हो सकता.
नाम देने वाले ने
कुछ और होने का हक मुझसे छीन लिया.
अब मैं कोशिश भी करूँ,
तो भी -
कोई मुझे कुछ और नहीं होने देगा.

मैं,
मेरे और तुम्हारे रिश्ते को
खुद की तरह मजबूर नहीं देखना चाहता.
सो, उसे नाम ना देना.

नाम के बंधन से स्वतंत्र होगा -
तो उसमें संभावनायें होगीं
अपेक्षाएँ नहीं.
वो जब चाहे, जो चाहे बन सकेगा.

और हर परिस्थिति में टिके रहने के लिये,
बदलाव की ताकत जरूरी है.
सो इस रिश्ते को नाम ना देना,
नाम - मजबूरी है.