Friday, July 30, 2010

आवाज़

हर एक आवाज़ उर्दू को फ़रयादी बताती है,
पगली फिर भी अब तक खुद को शहज़ादी बताती है!!

कई बाते मोहब्बत सबको बुनियादी बताती है,
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है!!

जहाँ पिछले कई बरसों से काले नाग रहते हैं
वहां एक घोसला चिड़ियों का था दादी बताती है!!

अभी तक इलाका है रवादारी के कब्ज़े में,
अभी फिरका परस्ती कम है आबादी बताती है !!

यहाँ वीरानियों की एक मुद्दत से हुकूमत है,
यहाँ से नफरते गुजरी हैं बर्बादी बताती है !!

लहू कैसे बहाया जाए लीडर बताते हैं,
लहू का जायका कैसा है खादी बताती है !!

गुलामी ने अभी तक मुल्क का पीछा नहीं छोड़ा,
हमे फिर कैद होना है आज़ादी बताती है !!

गरीबी क्यूँ हमारे शहर से बहार नहीं जाती,
अमीर--शहर के घर की हर एक शादी बताती है !!

मैं उन आँखों के मैखाने में थोड़ी देर बैठा था,
मुझे दुनिया नशे का आज तक आदि बताती है !!

Tuesday, July 27, 2010

ये दुनिया खूबसूरत है

ख़ानदानी रिश्तों में अक़्सर रक़ाबत है बहुत
घर से निकलो तो ये दुनिया खूबसूरत है बहुत

अपने कालेज में बहुत मग़रूर जो मशहूर है
दिल मिरा कहता है उस लड़की में चाहता है बहुत

उनके चेहरे चाँद-तारों की तरह रोशन हुए
जिन ग़रीबों के यहाँ हुस्न-ए-क़िफ़ायत1 है बहुत

हमसे हो नहीं सकती दुनिया की दुनियादारियाँ
इश्क़ की दीवार के साये में राहत है बहुत

धूप की चादर मिरे सूरज से कहना भेज दे
गुर्वतों का दौर है जाड़ों की शिद्दत2 है बहुत

उन अँधेरों में जहाँ सहमी हुई थी ये ज़मी
रात से तनहा लड़ा, जुगनू में हिम्मत है बहुत

Monday, July 26, 2010

माँ तुम्हारा खत

माँ
अब तुम्हारा खत
मुझे वो उष्मा नहीं देता
जब पहले पहल तुम्हारे आँचल से दूर
अनजानी हवाओं में तनहा हुआ था
पहले पहल जब मेरे पैरों के पास
ज़मीन हुई थी
और मेरे पंख कुतर गये थे
माँ तभी पहले पहल
जब तुम्हारा खत मिला था
तो उसे पढ पाना मुश्किल हो गया था
मेरे बेसब्र अनपढ आँसुओ के उतावलेपन में
और माँ
उस दिन सितारे फीके नहीं लगे
चाँद से दोस्ती हो गयी
और उस दिन मैं गुनगुनाता ही रहा घंटों

माँ!
जैसे जैसे सूरज मेरी छाती पर चढता जाता है
जैसे जैसे ज़िन्दगी मरुस्थल होती जाती है
मैं अपनें जले पाँव और छिली छाती लिये
किताबें ओढ लेता हूँ
दिमाग का भारीपन भुला ही देता है तुम्हे
मैं काश कि तुम्हारी गोद में सिर रख
आखें बंद करता
और वक्त की सांसें थम जाती
और माँ जब भी एसा सपना आता है न
तब मुझे अपना रूआसापन भला नहीं लगता
मेरे रोनें पर तुम्हे दुख होता होगा है न माँ...

क्या समय बीतता है तो अतीत पर
जम जाती है मोम की परत
तुम्हारे खत अब भी तो आते हैं
वैसे ही खत
वे ही नसीहतें
वे ही चिंतायें
जैसे कि तुम्हारे लिये वक्त ठहरा हुआ हो..

माँ तुम बहुत भोली हो
और भागती हुई दुनियाँ तुमसे बहुत आगे निकल चुकी है
मैं भी बदल गया हूं माँ
बडा हो गया हूं शायद
कि अब तुम्हारे खत
मुझे वो उष्मा नहीं देते
जबकि तुम्हारे खत की खुश्बू वैसी ही है
तुम्हारे खत पढ कर मन मोर नहीं होता लेकिन
बादल हो जाता है माँ
और माँ लगता है
भट्टी में तप कर कुन्दन बन निकलूं
क्योंकि दुनिया की सबसे अच्छी माँ मेरी माँ है..

लेकिन माँ
एसा भी होता है
जब दिनों तक तुम्हारे खत नहीं आते
तो दिनों तक कुछ भी अच्छा नहीं लगता
सितारे उदास हो जाते हैं
चाँद गुमसुम
एसा अब भी होता है लेकिन..

Wednesday, July 14, 2010

इस दिल का ये हाल तो देखो....

इस दिल का ये हाल तो देखो....

अरमानो के ये चाल तो देखो...

कैसे-कैसे मचलते है इनके हाल तो देखो..............

कभी पयमनो के साथ छलकते है....

कभी अरमानो के साथ मचलते है ...

कभी हवाओ के संग उड़ते है ....

कभी बारिश में तन मन भीगोते है ...

कभी मस्त हो अजब सी दुनिया में खोये रहते है.......

ऐसी सतरंगी दुनिया के निराले चाल तो देखो................

कभी सरसों के पीले फूलो से रंग उड़ाते है ....

कभी फलक को छूने की चाह सजाते है .....

कभी तितली के रंग-बिरंगे पंख लगा सपनों में उड़ते है ....

कितनी रुपहली दुनिया है जिसमे ये कैसे -कैसे रूप सजाते है ...........

हमने मुस्कुराना सीखा है

जिंदगी के हर गम को भूल हमने मुस्कुराना सीखा है



गुलो का तसुव्वर देख हमने मुस्कुराना सीखा है



बदलते रुत से हमने ये जिंदगी जीना सीखा है.



जो गम मिले जिंदगी में उसे हमने भुलाना सीखा है



दूर कंही मिलते है ज़मी आसमान उनसे उम्मीद जगाना सीखा है



साहिल और समंदर को देख हमने इठलाना सीखा है



यूँ तो हर कोई खुद को गम में डूबा देता है



दरिया की मौजो से हमने आगे बाद जाना सीखा है



मिट्टी की सोंधी खुशबु से गुलशन को महकाना सीखा है



गमो को भूला हमने खुद को ख़ुशी की बारिश में भिगोना सीखा है.....

Tuesday, July 13, 2010

कल वह वेश्या बन बरबाद हुयी |

कल वह वेश्या बन बरबाद हुयी |

उसे भूख थी धन की ,
उन्हें प्यास थी तन की,
किसी के रात्रि का श्रृंगार बनी,
या फ़िर विवशता का शिकार बनी ,
जब उसका जीवन डूबा अंधियारे मे,
तो उनकी रातें चार चाँद हुयी ,
कल वह वेश्या बन बरबाद हुयी |

अन्तिम निर्णय ले डाला,
जीवन सारा खो डाला ,
उसके अस्तित्व का हनन हुया,
देख उसे कोई मगन हुया ,
हर दर कितनी आस लगाई ,
पर सफल ना फरियाद हुयी ,
कल वह वेश्या बन बरबाद हुयी |


दुनिया मुर्दों की भीड़ लगती है,
अब अपने पर चीढ़ लगती है,
यह तो एक छिपा बाज़ार है,
रोज बिकते उस जैसे हज़ार है,
बनी वेश्या चेतना हमारी पहले,
वह तो इन सबके बाद हुयी,
कल वह वेश्या बन बरबाद हुयी |

जब कभी

जब कभी महसूस करो अकेलापनअपनी तन्हाई से घबरा जाओ,
भर आयें आँखें यूँ ही अचानक और कारण तुम समझ पाओ....
तो बेचैन हूँ मै भी तुम्हारी याद मेंये अनुमान सहज लगा लेना ,
पलके बंद कर याद करना मुझेख़्वाबों में अपने पास बुला लेना...
जाति की कोई बंदिश होगीना रिवाजों के वंहा पहरे होंगे,
ख़्वाबों की दुनिया में हम तुमसबसे दूर अकेले होंगे ..
कर लेना फिर बातें मुझसे चाहे जितनीफिर
अपनी
निगाहों से छू जाना मुझेप्यार एक दिन रंग लायेगा
अपनाहौसला फिर थोडा दे जाना मुझे

Monday, July 12, 2010

नीली पलकें

नीली पलकें मरू में जल सी
मन प्यासा प्यासा रहता है .


नीली पलकें नीलाम्बर में
उड़ते हंस की पाँखों सी
झुक जाए तो कँवल पटल पर
तितली का जोड़ा लगता है


नीली पलकें चपल चन्द्र दो
छाँव सरोवर में हिलती है
नीरवता में रुनझुन रुनझुन
अमरित का झरना झरता है

आँखें

नील गगन सी नीली आँखें
आँखों पर हैं कितनी आँखें

यूँ तो मटके में पानी था
प्यासी मर गई बूढी आँखें

कोर चिड़ी ने भी ना खाया
आँखों में थी नन्ही आँखें

डिग्री की सीढ़ी थी फिर भी
ठेठ कूए में डूबी आँखें

मंदिर मस्जिद माँ की छाती
क्या जानेगी अंधी आँखें

Sunday, July 11, 2010

कई दिनों के बाद.......

कई दिनों तक चूल्हा रोया ,चक्की रही उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोयी उसके पास


कई दिनों तक लगी भीत पर चिपकिलियों की गस्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त


दाने आये घर के अन्दर कई दिनों के बाद


धुआ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद.......

चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद.......

कौव्ये ने भी खुजलाई पांखे कई दिनों के बाद.....

Thursday, July 8, 2010

बालविधवा

दर्द के साये में भी जवां हो गयी ख्वाहिशें,
तमाम बन्दिशें फिर भी मिटती नहीं तमन्नायें,
बालविधवा हूँ मैं, कितना समझाया मन को,
फिर् भी बाँवरा मन करे नित नयी कामनायें

बचपन से देखा तन पर श्वेत वस्त्र ही,
क्या करुँ जो मन रंगों को देख अकुलाता है,
सुनकर खनक चूड़ियों की किसी कलाई में,
मन फिर मन है, कभी मचल ही जाता है.

ना देश के लिये ना अपने लिये,
मिटा रहा मेरा जीवन समाज किसके लिये.
जिसे ना जाना ना समझा कभी मैने,
सारी उम्र आँसू कैसे बहाऊँ उसके लिये.

ईश्वर का वरदान है ये मानव जीवन,
ना जलाओ चिताओं के साथ अबलाओं को...
बदला है वक्त, बदलो ये समाज भी,
अब चिता नहीं, डोली दो इन विधवाओं को.............

This is not my poem this poem is belong to Sonal ji

एक जीवनी

सागर की गहराईयों से गहरा
आसमां की ऊंचाईयों से ऊंचा
नदियों की लंबाई से लंबा
दरिया के बहाव से तेज
पहाडो के ठहराव से ठहरा
पठार के समता से समतल
विचारों की उलझनों से घना
प्रभु की प्रतिमा से पवित्र
प्रेम भरे शब्दों से मीठा
नफरत रूपी विष से कडवा
पहली बार पंख़ पसारती तितली से मासूम
गर्म तपती आग से कठोर
मां की ममता से सलोना
पिता के आशिर्वादों से मजबूत सहारा
बिन बोले बालाक क़ी बातों से आनोखा
कुछ ऐसा ह् होता है...
खुद से खुद का रिश्ता
ये रिश्ता जिसकि बुनियाद
पल में गहरी और पल में खोखली है
बस्.. फर्क दिखता है कर्म में
ये रिश्ता...
जो आत्मविश्वास मे पनपता है
ये रिश्ता
जो ऊपर से बनकर आता है
जमीं पर रंग बदलता है
और फिर...
उसी दुनिया मे संग आत्मा के
चला जाता है
बस...आने जाने के इस फेरे में
एक जीवनी लिख जाता है.

Wednesday, July 7, 2010

एक बार जो तुम आ जाते..

विरह का वेदना से सम्बन्ध दिल
आज समझ पाया है
क्या
लिखा था आँखों में तुम्हारी
मन
आज ये पढ़ पाया है
दिल ही दिल मे
की भक्ति को
हम भी अपना नमन दे पाते,
एक बार जो तुम आ जाते..
जुदाई ने आकर समझाया
ये रिश्ता
जो दिल ने दिल से बाँध लिया था
अब तुम्हारे लिये तरसता ये दिल

तब क्यूं ना तुमने इज़हार किया था

मन के आँगन में प्रेत से भटकते
ख्वाब
सारे मोक्ष पा जाते,
एक बार जो तुम आ जाते..

Not Mine This poem is belong to sonal srivastava

Tuesday, July 6, 2010

ना चोट अपनी ना दर्द अपना

ना जमीं अपनी ना आसमान अपना
हम फ्लैटों में रहते हैं

रिश्तों के वर्क से मिट गयी हर इबारत
ना माँ अपनी ना बाप अपना
हम फ्लैटों में रहते हैं

जिंदगी की दौड़ में खो गयी है कहीं
ना हँसी अपनी ना अरमां अपना
हम फ्लैटों में रहते हैं

इन्टरनेट पर करते हैं सारी दुनिया से चेटिंग
ना सखी अपनी ना सखा अपना
हम फ्लैटों में रहते हैं

बाजू वाले का नाम 217 न. वाले शर्मा जी
ना गली अपनी ना गाँव अपना
हम फ्लैटों में रहते हैं

रहते हैं घरों में चिड़ियाघरों से
ना शाम अपनी ना सहर अपना
हम फ्लैटों में रहते हैं

जीने की कशमकश में मर गए एहसास
ना चोट अपनी ना दर्द अपना
हम फ्लैटों में रहते हैं

Thursday, July 1, 2010

पापा की याद में

दस बरस हो चुके हैं फिर भी
आज भी आप ज़िंदा हो।
आज भी ऐसा लगता है कि
करते आप मेरी चिंता हो।

पितृ ऋण एक ऐसा ऋण
शय्या पर पूरा कहा जाता।
मैं कहता हूं, ये ऐसा ऋण,
संस्‍कार बिन पूर्ण न हो पाता।

कोसों पैदल चलकर भी
आपने महंगी फ़ीस भरी।
हम बेटे कुछ लायक बनें,
इस पर ज़िंदगी नाम करी।

याद आ जाता है बरबस
आज भी आपका दौड़े आना,
जब भी मैं खड्ढों में अटका
अपने काम को छोड़े आना।

मेरी हर बेबसी को बरबस,
आंखों ही आंखों में समझ जाना।
कैसे भूलूं आपको पापा,
क्‍यों मुश्किल फिर आपको पाना?

सब कुछ पा सकता हूं शायद,
पर नहीं मिल सकती वो सुरक्षा।
जो आप सिखा गए हो मुझे
नहीं मिल सकती अब वो शिक्षा।

भूले नहीं भूले हैं वो दिन
एक्‍ज़ाम के वो दुश्वारी भरे दिन
जब पढ़ते पढ़ते मैं सो जाता
और आपको अचानक कोने पाता
उठाते मुझे कि बेटा उठ जा
कल के दिन तक मेहनत कर आ
फिर उठकर मैं जो पढ़ता
तो अगले दिन बस
अच्‍छा ही करता।

मृत्‍यु शैया पर आपका होना
लगा मुझे छिन गया बिछौना
मालूम न था कि हंसू या रोऊं,
दिख रहा था पूरे परिवार का रोना।

दस बरसों में छिन गया बचपन,
आपको पाया विचारों में हरदम,
हर वक्त ग़लत करने से रोका,
कुछ करने से पहले आपको सोचा,
आपकी साख कहीं मलिन तो न होगी,
हर वक्त यही एक विचार रहता।

फ़ादर्स डे आएं और जाएं
सब पिता का स्‍नेह पाएं।
पर हम से पितृविहीन
अपने पिता को बस
विचारो में पाएं।

फ़ादर्स डे मेरा हर एक दिन है।
संघर्षमयी ही बस जीवन है।
सुरक्षा की अब आस करूं क्‍या
शान्‍ति से समझो, बस अनबन है।