Tuesday, September 28, 2010

हर राज़ खोलती हैं

खामोश है जुबां पर आँखें तो बोलती हैं
क्या क्या छुपा है दिल में हर राज़ खोलती हैं

आँखों में बसे अश्क भी आज़ाद हो गए
हम तो संभल संभल कर बर्बाद हो गए
आहों से भरी साँसे भी कुछ बात बोलती हैं
क्या क्या छुपा है दिल में हर राज़ खोलती हैं

हमने कभी जो चाहा किस्मत से वो णा पाया
महफ़िल के दौर में भी तनहा ही खुद को पाया
तन्हाईयाँ भी सांसों में कुछ दर्द घोलती हैं
क्या क्या छुपा है दिल में हर राज़ खोलती हैं

तुम तो थे मेरे अपने तुम ही न जान पाए
हाल - ए- दिल को मेरे पहचान ही न पाए
बिन मांझी के जिंदगी कि नैया ये डोलती है
क्या क्या छुपा है दिल में हर राज़ खोलती हैं..
हर राज़ खोलती हैं......

Monday, September 27, 2010

बिटिया सयानी हो गयी है

सड़क पर कोई आया तो नहीं,

शायद आया?कब आया?

क्यों आया?किधर देखता है?

किसे देखता है?क्यों देखता है?

क्या बोला?नहीं बोला नहीं,

बस फुसफुसाया,पर क्यों?

दिल धड़कने लगा है मेरा,पर क्यों?

नहीं, ऐसा कुछ नहीं है,वो तो पढ़ रही है,

परीक्षा की तयारी कर रही है,खिड़की भी बंद है,

कौन था वो,जरा देखूं तो,अरे कोरियर वाला,

चला भी गया,मैं भी नाहक, परेशां,

फिर क्यों धड़कने लगता है मेरा दिल,

कुछ भी खटपट से चोंक जाता हूँ मैं?

करूं भी तो और क्या?

बिटिया सयानी हो गयी है,

हर पल यही चिंता सताती है....

बस ऊंच नीच के डर की..

बिटिया सयानी हो गयी है

सड़क पर कोई आया तो नहीं,


शायद आया?कब आया?


क्यों आया?किधर देखता है?


किसे देखता है?क्यों देखता है?


क्या बोला?नहीं बोला नहीं,


बस फुसफुसाया,पर क्यों?


दिल धड़कने लगा है मेरा,पर क्यों?


नहीं, ऐसा कुछ नहीं है,वो तो पढ़ रही है,


परीक्षा की तयारी कर रही है,खिड़की भी बंद है,


कौन था वो,जरा देखूं तो,अरे कोरियर वाला,


चला भी गया,मैं भी नाहक, परेशां,


फिर क्यों धड़कने लगता है मेरा दिल,


कुछ भी खटपट से चोंक जाता हूँ मैं?


करूं भी तो और क्या?


बिटिया सयानी हो गयी है,


हर पल यही चिंता सताती है....


बस ऊंच नीच के डर की..

Saturday, September 25, 2010

सल्तनत के नाम एक बयान

एक गुडिया की कई कठपुतली में जान है
आज शायर,ये तमाशा देख कर हैरान है
खाश सड़क बंद है तब से मरमत के लिए
ये हमारे वक़्त की की सबसे सही पहचान है
एक बुढा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो
इस अँधेरी कोठेरी में एक रोशनदान है
मर्सल्हत आमेजे होते है सियासत के कदम
तू न समझेगा सियासत तू अभी इंसान है
इस कदर पाबन्दी-ए-महजब की सदके आपके
जब से आजादी मिली है मुल्क में रमजान है
मुझमें रहते है करोडो लोग चुप कैसे रहू
हर गजल अब सल्तनत के नाम एक बयान है!!!

Wednesday, September 22, 2010

दीवार हुआ चाँद..

रात जब तुझको देखा तो शर्मसार हुआ चाँद
तारों की तरह टूट के दो चार हुआ चाँद..

आँखें भी जलीं, दिल भी जला, मैं पिघल गया
ख्वाबों की झुलस नें कहा अंगार हुआ चाँद..

राहों में तुम्ही तुम थे, बदलता रहा सफर
थक हार गये, डूबे, मझधार हुआ चाँद..

वादे भी नहीं याद, इरादों में धुंध सी
मतलब के यार मेरे, सरकार हुआ चाँद..

मैं मुझसे मिल के रूठा “सिद्धार्थ” तुम न आये
तुम हो तुम्हें मुबारक, दीवार हुआ चाँद..

Monday, September 20, 2010

इस ठिठुरती ठंड में

इस ठिठुरती ठंड में
मेरा ग़म क्यों नहीं ज़रा जम जाता
पिघल-पिघल कर बार-बार आखों से क्यों है निकल आता ।

घने से इस कोहरे में
हाथों से अपने चेहरे को नहीं हुँ ढुँढ पाता
फिर कैसे उसका चेहरा बार-बार नज़रों के सामने है आ जाता ।

बर्फीली इन रातों में
अलाव में ज़लकर कई लम्हें धुँआ बनकर है उड़ जाते
बस कुछ पुरानी यादें राख बनकर है कालिख छोड़ जाते ।

अब दिन इतने है छोटे की सुबह होते ही शाम चौखट पर नज़र आती है,
शाम से अब डर नहीं लगता
सर्दी तो वही पुरानी सी है
पर पहले बस ठंड थी
अब पुरानी यादें भी दिल को चीर कर जाती है ।

कौन हूँ मैं?

रह रह कर यही प्रश्न
मेरे मन में उठता है
कौन हूँ में?
क्या अस्तित्व है मेरा?
कोई मुझे पहचानता नहीं
क्या हम सभी में समानता नहीं?
सब मौन क्यूँ हैं?
कौन हूँ मैं?

क्या में हवा हूँ?
तो में स्थिर क्यूँ हूँ?
या 'पत्थर' से टकराकर
बेबस हुआ हूँ
में दिखता नहीं हूँ
या अन्देखा किया है
जो तू देखा किया तो
में हवा भी नहीं हूँ
कौन हूँ मैं?

क्या मैं जल हूँ?
आज था, या कल हूँ
वेग प्रबल है
मन विह्वल है
क्या बर्फ से पिघला
ये खारा आँखों का पानी
जहां से है गुज़रा
सब बंज़र हुए
क्यों तुम्हे चोट पहुँची
क्या खंजर हुए?
पानी तेरी आँखों में
मेरी आँखों में
मैं जल भी नहीं हूँ
कौन हूँ मैं?

क्या मैं आग हूँ?
या अपनी ही राख हूँ
क्या तुझको ये आग जलाती है?
या मैं खुद ही इसमें जलता हूँ
सूरज को तरह तपता हूँ
मेरी आग में रौशनी क्यूँ नहीं
क्यूँ तेरे लिए मैं शबनम हुआ
मेरी आग भी मेरी आँखों का पानी
सुखाती नहीं
मैं आग भी नहीं हूँ
कौन हूँ मैं?

क्या मैं मिटटी हूँ?
बंजर या रेतीली
उगी हैं खर पतवार
या फिर झाडें कटीली
बिखरी है कण कण में
ये रेत है या मिटटी
तपती हुई रेत पर
सुलगती है मेरी ज़मीं
कहीं पानी ज्यादा है
और सूखा है कहीं
रेत में उगता है
तिनका महीन
मेरी जिंदगी में तिनका भी नहीं
मिटटी और रेत
कभी एक
नहीं होते
नहीं मैं मिटटी नहीं हूँ
कौन हूँ मैं?

क्या मैं आकाश हूँ?
उचाईयों में अकेला
या नियति का खेला
क्यों उचक कर तुने
ना चाहा छूना मुझे
क्यों तुझमे मुझमे है
अब ये दूरी
मैं कहाँ हूँ तेरे बिन
तू मेरे बिन अधूरी
गर आकाश होता
तो आजाद होता
यादों में तेरी
मैं तो बंधा हूँ
नहीं मैं आकाश नहीं हूँ
कौन हूँ मैं?

न मैं हवा हूँ ना आकाश
ना मिटटी आग पानी
कोई तो बतलाये
क्या है मेरी कहानी
पांच तत्वों से बनता है जीवन
इनसे विरक्त मेरा ये मन
न जीवित न मृत
मैं हूँ जड़ चेतन !!

Saturday, September 18, 2010

झील के किनारे

झील के किनारे
तन्हा बैठे हुए

यादो में किसी की
खोया हुआ था..
की अचानक एक गुलाब
गिरा पानी पर

कुछ तरंगे बन गयी
हिलते हुए पानी में..
एक तस्वीर नज़र आई थी
सुर्ख़ गुलाबी तेरी ही थी..

अबकी बार कुर्ता गुलाबी था
बिल्कुल तेरे होटो की तरह..
जिन्हे छूने को
मेरे लब बेकरार रहते थे..

उंगलिया मचलने लगी
पानी में उतरने को..
सोचा एक बार तेरे
गालो को छ्हू लिया जाए..

लेकिन इतनी मासूम सी
तुम लगी थी पानी में...
की आँखो ने कसम देकर
रोक लिया मुझे..

धड़कनो ने दी आवाज़
वो मचलने लगी थी..
इतनी सुंदर कैसे हो तुम
तितलिया भी तुमसे जलने लगी थी

शाम हो चली थी
मगर दीवाना सूरज..
पहाड़ी के पीछे से
अब भी झाँक रहा था..

अंगूर की बेल,
किनारे पर थी.
कैसे लटक कर
पानी पर आ गयी थी..

तुम कितनी ख़ूबसूरत हो
मुझे ये एहसास हुआ था..
अचानक किसी के आने का
आभास हुआ था..

रात बेदर्दी जलने लगी
अंधेरे में तुम नज़र ना आई
जुगनुओ ने मगर
मेरा साथ निभाया था..

सुबह हो चुकी है
पंछी चहकने लगे...
डाली पर फिर एक
गुलाब खिल आया है

हवाओ का मन किया है
तुझे देखने को..
फिर से पानी में एक
गुलाब गिराया है....

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Friday, September 17, 2010

फिर एक नयी चिता जला रहा हू

जिस्म सीली लकड़ी जैसे सुलग रहा है
अपनी जली रूह की राख उड़ा कर
रुख हवाओ का दिखा रहा हू

फिर एक नयी चिता जला रहा हू



आज कुछ खुवाब बोए है कागज़ पर
कोशिश है नज्मो को बा - तरतीब करने की
किये जा रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू


कुछ रह गया जो साथ न गया तुम्हारे
दिल की दराजों को फिर से खंगाल कर
आज वोह सामान निकाल रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू



कुछ लम्हे टंगे है मेरे कमरे की दीवार पर
वक़्त की धूल सी जम गई है उन पर
उन्हे उतार रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू



थोड़ी सी खताए रखी है अलमारी के ऊपर
सजाए पता नहीं कब तक आयेगी
एक ज़माने से इंतजार कर रहा हू


फिर एक नयी चिता जला रहा हू

Monday, September 6, 2010

खुलने लगी दुकाने!!!!

बदल गए
लिखने पढने के
अब सारे पैमाने
बारहखड़ी रटे बिन बच्चे
होते आज सयाने !!!

नयी सदी है
नए विषय है
नयी नयी सब बातें
गए वक़्त की
चीजे लगती
खड़िया,कलम,दवाते
सब्द वोही है
पर सब्दो के
बदल गए सब माने!!!

अपने ताई
सीखते है अब
सबक सभी दुनियावी
बच्चो को
मंजूर नहीं वे
कीड़ा बने किताबे ;
स्कूल पर भारी दीखते
कोर्ट काचेहरी थाने!
ताल किनारे
बना मदरसा
उसी ताल में डूबा
रोज कागजी नाक्सो से
टीचेर बेचारा उबा
बांस बेहया के झुरमुट
अब दिन में लगे डराने !
आने वाले कल की
दिखती
धुंधली बहुत ईमारत
बिना नीव के
खड़ी हो रही
इतनी बड़ी ईमारत
जब से गली गली
खुलने लगी दुकाने!!!!

मेरा बचपन


हाथ आकर लगा गया कोई

मेरा छप्पर उठा गया कोई....
लग गया एक मशीन में मैं भी

शहर में लेकर आगया कोई

मैं खड़ा था की पीठ पर मेरी

इतिहार इक लगा गया कोई

ये सदी धुप को तरसती है

जैसे सूरज को खा गया कोई
ऐसी महंगाई है की चेहरा भी
बेच कर अपना खा गया कोई
अब वो अरमान है ना वो सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाव से जब भी आ गया कोई.........

Sunday, September 5, 2010

जामुन का पेड़

बहुत पहले
जामुन का जो पौधा
लगाया था पिता ने
अब वो मुकामल पेड़ बन गया है
घना,छायादार,फलदार
बिलकुल पिता की तरह

जेठ का फनफनाता सूरज
जब फटकारता है कोड़े
जामुन का पेड़ की नंगी पीठ पर
तब खमोशी से सहता है ये कठोर यातना
ताकि उपलब्ध हो सके हमें
चाव का एक अदद टुकड़ा पिता भी जामुन की पेड़ की तरह है
जब भी घिरे हम
उलझन के चक्र में
या डूबने वाले थे दुखो के बाढ़ में
पिता ढाल बन कर खड़े हो गए
हमारे और संकट के बीच
जामुन का ये छोटा सा पेड़
हमारी छोटी बड़ी कामयाबी पर
ख़ुशी से झूमता है ऐसे
की थर्थारने लगती है खिड़कियाँ घरो की
लेकिन ऐसे अवसर पर
दिखाई देती है पिता के चेहरे पर
गर्व की पतली सी लकीर बस........
हमारी खातिर
अपना सब कुछ नौचावार करने को
आतुर रहता है ये जामुन का पेड़......
जैसे पिता हो हमारा.....
पहेली बनी हुयी है
हमारे लिए ये बात
की पिता जामुन के पेड़ की तरह है
या जामुन का पेड़ पिता की तरह!!!!

शिक्षक

जो मानव मन में ज्ञान का दीपक जलाता है,

अज्ञान का तम मन मंदिर से दूर भगाता है!

मानव रचना का शिल्पी कहलाता है,

यही मनुज रूपी देवता शिक्षक कहलाता है!

रण के बीच में जब अर्जुन दुर्बल पड़े

,यह सोच बैठे सामने मेरी स्वजन खड़े!

तब श्री कृष्ण ने गुर का आसन लिया,

बीच रण के ही अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया!

ज्यूँ ही श्री कृष्ण ने गीता का ज्ञान था बांटा,

उखाड़ फैंका अर्जुन के मन में फंसा हुआ मोह का काँटा!

जो भूले हुए को उसका कर्त्तव्य याद दिलाता है,

यही मनुज रूपी देवता शिक्षक कहलाता है!

जब मेंढ़ टूटी खेत की गुरु ने आरुणि को,

कैसे भी हो शिष्य रोकना है इस खेत से छूटते पानी को!

न होगा जो पानी तो फ़सल बर्बाद होगी,

इस विद्यालय के शिष्यों की कैसे फिर क्षुधा शांत होगी?

आरुणि चल दिए और आये न कई घंटों बाद भी,

चिंता हुई गुरु को आया चेहरे पर विषाद भी!

जाकर देखा तो पानी है रुका हुआ,

शिष्य उनका है टूटी मेंध की जगह लेटा हुआ!

और जाकर उन्होंने उसको उठा लिया,

अपने इस शिष्य को सीने लगा लिया!

वो जो गिरते हो को भी सीने लगाता है,

यही मनुज रूपी देवता शिक्षक कहलाता है!

और क्या कहूं में शिक्षक की महत्ता के बारे में,

वो ही होता है किरण अज्ञान के अंधियारे में!

आपको निस्वार्थ भाव से ज्ञान वो देता है,

उत्थान हो आपका यही ख्वाइश वो रखता है!

देख आपकी प्रगति को जो मन ही मन हर्षाता है,

यही मनुज रूपी देवता शिक्षक कहलाता है! 

शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाये!!!!!

Thursday, September 2, 2010

आप मुझे अच्छी लगती हो ............

सुनती हो ..............
आप मुझे अच्छी लगती हो
कुछ चंचल सी,कुछ चुप सी
थोड़ी पागल लगती हो
आप मुझे अच्छी लगती हो
...
है चाहने वाले बहुत
पर आप मै बात है कुछ अलग
आप अपनी सी लगती हो

वो कहते कहते रुक जाना
बैठे बैठे कही खो जाना
कुछ उलझन मे रहती हो ............
आप मुझे अच्छी लगती हो ............

आप मुझे अच्छी लगती हो ............

सुनती हो ..............
आप मुझे अच्छी लगती हो
कुछ चंचल सी,कुछ चुप सी
थोड़ी पागल लगती हो
आप मुझे अच्छी लगती हो
...
है चाहने वाले बहुत
पर आप मै बात है कुछ अलग
आप अपनी सी लगती हो

वो कहते कहते रुक जाना
बैठे बैठे कही खो जाना
कुछ उलझन मे रहती हो ............
आप मुझे अच्छी लगती हो ............