Sunday, September 25, 2011

भाई तुम वहीँ रहोगे न !

भाई तुम वहीँ हो न !...
जहाँ छोड़कर गयी थी ,
तुम्हारी दी गयी गाड़ी में
तुम्हारे दिए वर के साथ
अनिश्चित भविष्य की ओर!
सर पर चील कौव्वो की तरह
मंडराती दुआओं ,आशीर्वचनों
और सर घुमाती आशाओं
और दूर बहुत दूर दिखती
तुम्हारी डबदबाती आँखों में
समन्वय बिठाती मैं
चली आई थी जब
पकड़ी हुई थी तब मैंने
एक डोर
तुम्हारे पास था जिसका
दूसरा छोर
इस बात को कई साल बीते !
अरसा हुआ !
दुनियावी सर्कस में
ऊपर नीचे होते झूलों में
संतुलन बैठाते!
छोड़ी तो नहीं वो डोर
पर घूम कर सिमट कर .
उलझ कर ,गुच्छा बनी ,
इसडोर के सहारे
कैसे ढूँढूं
तुम्हारे पास छूटा
दूसरा छोर
भाई तुम अब भी वहीँ हो न !
अब भी दौड़ती हूँ जब बेतहाशा
ज़िन्दगी की रेस में
भागते ,हांफते
फिर भी पिछड़ने के भय से
कांपते
रुक के देखने भी नहीं पाती
राह में क्या ,कहाँ छूट गया
क्या जुड़ा,क्या टूट गया !
बस कस के थामे रहती हूँ,
यही गुच्छा गुच्छा डोर
की कभी अगर लौटना चाहूँ
बादलों की ओर
उसी रास्ते सावनों की ओर
कभी मिल गया अगर !
कोई मोड़
तो लौटूगी जरूर !
उसी घर की तरफ!
अपने बचपन की तरफ
तुम मिलोगे न!
भाई तुम वहीँ रहोगे न !

Saturday, September 24, 2011

दिल की आग

अपने पहाड़ गैर के गुलजार हो गए !

ये भी हमारे राह के दिवार हो गए !!

फल पक चुका है शाख पे गर्मी की धुप में !

हम अपने दिल की आग में तैयार हो गए !!

हम पहले नर्म पत्तों की शाख थे मगर !

काटे गए है इतने के तलवार हो गए !!

बाजार में बिकी हुई चीजों की मांग है !

हम इसलिए खुद अपने खरीदार हो गए!!

तजा लहू भरा था सुनहरे गुलाब में !

इनकार करने वाले गुनाहगार हो गए!!

वो सरकशो के पाँव की जंजीर थे कभी !

अब बुजदिलो के हाथ में तलवार हो गए !!

Wednesday, September 7, 2011

सपना

बारह फुट की खोली में बैठकर वो
सपना देखती है !

एक खुले -खुले आँगन का
हरे भरे पेड़ों पर
चेह्चाहती चिडियो का!


पतियों के बीच से छन -छन कर आती धुप में,
झुला झूलते उसके
भोला और गुड्डी
चहचहा रहे है पछियों की तरह !


तंग कोठरी के अँधेरे में भी
देख रही है उनके धुप से उजले मुखड़े !


हासिये से प्याज काटते उसके हाथ
झुला दे रहे है ,सपने में
बच्चो की किलकारी सुनते हुए
हाथ चूल्हे में लकडिया सुलगाते है !


चरमराता धुवाँ पल भर में
भर जाता है ,बारह फुट की खोली में
खांसी से त्रस्त भोला
खांस उठता है जोर से !


गुडिया उसको चुप कराते हुए
अपने आंसू पोछती है की तभी वो
कढाई में छोकती है सब्जी!


छोंक के धुएं में
धुंधला जाती है आँखें उसकी
और धुंधला जाता है

आँखों के पानी में तिरता सपना उसका
खुले आँगन और हरे-भरे पेड़ो का
पानी में धुंधला कर बह जाता है
तिरिस्कृत अपयश सा !!!!