Friday, February 3, 2012

कबाड़ बीननेवाली

देखा मैंने एक कबाड़ बीननेवाली को
दिसम्बर की शीत-दोपहरी में
एक रिक्शे पर एक मासूम बच्चे के साथ
अधलेटी पट्टी पर पर रिक्शे की
और कबाड़ की बड़ी गठरी सीट पर
भावहीन दो आँखें घूरती दाये-बाये 
किया अनुभव मैंने जिन्दगी ऐसी भी होती है
हर सुबह संगर्ष 
हर रात एक अनबुझ पहेली होती है
जीना सिखाती है ऐसी माँ बच्चे को बिना सहारे
यहाँ जरुरी होता है दो वक़्त का खाना
सपनो की यहाँ जरुरत नहीं
सपने तो आते ही नहीं
नींद आती है थकान के लिए!!!! 

2 comments: