भाई तुम वहीँ हो न !...
जहाँ छोड़कर गयी थी ,
तुम्हारी दी गयी गाड़ी में
तुम्हारे दिए वर के साथ
अनिश्चित भविष्य की ओर!
सर पर चील कौव्वो की तरह
मंडराती दुआओं ,आशीर्वचनों
और सर घुमाती आशाओं
और दूर बहुत दूर दिखती
तुम्हारी डबदबाती आँखों में
समन्वय बिठाती मैं
चली आई थी जब
पकड़ी हुई थी तब मैंने
एक डोर
तुम्हारे पास था जिसका
दूसरा छोर
इस बात को कई साल बीते !
अरसा हुआ !
दुनियावी सर्कस में
ऊपर नीचे होते झूलों में
संतुलन बैठाते!
छोड़ी तो नहीं वो डोर
पर घूम कर सिमट कर .
उलझ कर ,गुच्छा बनी ,
इसडोर के सहारे
कैसे ढूँढूं
तुम्हारे पास छूटा
दूसरा छोर
भाई तुम अब भी वहीँ हो न !
अब भी दौड़ती हूँ जब बेतहाशा
ज़िन्दगी की रेस में
भागते ,हांफते
फिर भी पिछड़ने के भय से
कांपते
रुक के देखने भी नहीं पाती
राह में क्या ,कहाँ छूट गया
क्या जुड़ा,क्या टूट गया !
बस कस के थामे रहती हूँ,
यही गुच्छा गुच्छा डोर
की कभी अगर लौटना चाहूँ
बादलों की ओर
उसी रास्ते सावनों की ओर
कभी मिल गया अगर !
कोई मोड़
तो लौटूगी जरूर !
उसी घर की तरफ!
अपने बचपन की तरफ
तुम मिलोगे न!
भाई तुम वहीँ रहोगे न !
एक बहन के मन के भावों को बहुत खूबसूरती से और सटीक लिखा है ..
ReplyDeleteएक आश्रय सदा ही स्थिर रहता है, यह स्नेह बना रहे।
ReplyDeleteवाह ...बहुत खुबसूरत और प्यारे एहसास ...
ReplyDeleteएक बहने के भावो का सुन्दर चित्रण किया है।
ReplyDeleteAap sabhi ka dhanyawaad........
ReplyDeletesiddharth ji meri kavita aapne apne blog me chhapi .agar mera naam bhi chhap dete to aur achha hota .....khair ...sabhi pasand karne vaalo ko mera dhanyavaad....JYOTSNA MISRA
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