भार विहीन हुआ हर बंधन !
देख रहा हू निर्जन दर्पण !!
जिन पत्तों पर फेका पानी !
उनमें था एक अपनापन !!
निजता की पहचान यही है !
धरम गहनतम कर्म सनातन!!
एक दूजे को ताक रहे है !
भीतर से घर बाहर आँगन!!
पहला और अंतिम सोच रहा !
कुंदन -सा मन चन्दन सा तन!!
पानी तेरा दोष नहीं है !
जैसा बादल वैसा सावन !!
..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति..अंतिम पंक्तियाँ लाज़वाब..
ReplyDeleteसुन्दर रचना ...
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