अन्खुआये बीज
मिटटी की लिहाफ से
सर निकल कर झाकते हुए
अंकुर!
डूब पर लेती हुयी ओस
ओस भींगे चांदनी के फूल
भींगे कपड़ो में लिपटी हुयी
पगडण्डी !
मदमाते हाथियों से झूमती दरख्त(पेड़)
चिड्रियों के घोसले
बुलबुल के सुर!
झींगुर और दादुर का और्क्रेस्त्रा
जरा सी ओट पाकर
झमाझम बरसात में
छिपते छिपाते जुगाली करते
गाय, बकरिया
चरवाहे,पीपल की छाव
दर्पण जैसे ताल तलैया
बरसो से देखे नहीं
शहर में रहते हुए,
बहुमंजली इमारतों के दरबे में
खुद से खुद ही कुछ कहते
कुछ सुनते हुए!
एक टुकड़ा बादल
एक खिड़की बारिश
एक मुट्ठी सिरहन
अंजुरी भर मौसम
खुल कर कहा जी सके हम !
यहाँ तो निरंतर दवंद(लडाई) है
अधूरे शहर को
जाने किस बात का घमंड है?
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