Friday, November 12, 2010

हवा चली है !

ग़ाव छोड़ शहर की और जाने की हवा चली है !
मत भूल वह जिन्दगी सड़क और मन एक गली है !!
जद्जोजेहद कर चलते गए पर अब तक ठिकाना ना मिला !
फिर क्यूँ लगता है ऐसा पता उसने सही बताई है !!
इन तंग कपड़ो में देख नजरे खुद ब खुद झूक जाती है !
सोचता हुचलो उन्हें ना शर्म किसी को तो आई है !!
सुबह से शाम शाम से सहर हर पल चिल पौ मची है !
कहते है शहर सोता नहीं,मगर नींद से आँख ललचाई है !!
कदम -दर - कदम जेब कतरे मिलेंगे इल्म ना था "सिद्धार्थ" !
शुक्र है खुदा का तन पर मेरे कमीज तो बची है!!
जल-जुलुस,जमीन और जोरू यही शक्ल है शहर की!
भला है ग़ाव जहा दरो-दिवार में इंसानियत की परछाई है !!!!

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