है तुम्हारे मन मे जो आशा, समझता हूँ
मै तुम्हारे प्रेम की भाषा समझता हूँ
चाहती हो तुम, चलें नदिया किनारे हम
हाथ रखकर हाथ मे बातें करें मन की
चाहती हो तुम कि बैठें वृक्ष – छाँवों में
हम गढें नूतन कहानी दिल के सावन की
मै मिलन की घोर अभिलाषा समझता हूँ
मै तुम्हारे प्रेम की भाषा समझता हूँ
तुम बिताना चाहती हर पल, मिरे अन्दर
क्योकि मुझको अपने अन्दर रख चुकी हो तुम
पाके मुझसे बून्द भर की एक आशा में
दिल मे इक गहरा समन्दर रख चुकी हो तुम
क्यो है इक निस्वार्थ मन प्यासा, समझता हूँ
मै तुम्हारे प्रेम की भाषा समझता हूँ
चाहती हो तुम कि हम दोनो की नज़रों में
सिर्फ हम दोनों की सूरत ही नज़र आये
चाहती हो तुम कि जब दर्पण तुम्हे देखे
हर अदा मेरे लिये सिंगार कर आये
प्यार की गहरी है जिज्ञासा, समझता हूँ
मै तुम्हारे प्रेम की भाषा समझता हूँ
है तुम्हारा मन भी मिलने के लिये ब्याकुल
हाँ, मगर लज़्ज़ा के कारण कह नही पाती
तुम मुझे ही देखने छ्त पर टहलती हो
बिन मुझे देखे तुम्हें भी नींद कब आती
कौन है कितना यहाँ प्यासा, समझता हूँ
मै तुम्हारे प्रेम की भाषा समझता हूँ
बहुत खूब ... जो इस भाषा को समझ गया उसने प्रेम पा लिया ...
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है ...