Tuesday, July 24, 2012

मगर तुम नहीं थे....!!!

दरख्तों के दरमियाँ  
सूरज की आहट हुयी 
और फैलती चली गयी 
धुप की एक विशाल चादर 
कलियों से शरमाकर 
अपनी घूँघट 
उतार फैका 
धुप की तपिश  
अपने शबाब पर थी 
माथे पर पसीने की बुँदे 
दरवाजे और खिडकियों पर 
खस के परदे 
आँखों पर धुप का चश्मा 
सभी कुछ था 
मगर तुम नहीं थे....!!!

सावन की दबिश  के साथ 
पहली फुहारों में 
नदी -नाले उफान पर थे 
मौसम के साथ ही 
अन्तेर्मन भींग चुका था 
सड़के सुनसान 
और गलियों की जवानी 
नदारत थी 
आसमान पर अलसाये बादल थे 
प्याले में रखी चाय 
अभी तक गर्म थी 
पुराणी यादों को तजा करती 
ऍफ़. एम् बंद की स्वरलहरियां थी 
मगर तुम नहीं थे......!!!

सदियों के ख़त आये 
सूरज के गुलाबी होते ही 
धुप की चादर
कही खो गयी 
अलसाये बादलो का 
फिर पता नहीं चला 
कहा गए
लोग तरसते रहे 
अंजुरी भर धुप के लिए 
और धुप थी की 
ठन्डे बादलो से 
छन  कर आ रही थी 
पैरो में उनी मौजे थे 
हाथो में ग्लास था 
कार्डिगन ,गलाबंद 
और दस्ताने 
सभी कुछ था 
मगर तुम नहीं थे....!!!

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