Sunday, May 30, 2010

मन की व्यथा


मन की व्यथा किसे कहू?
यहाँ चाहते है सब ही कहना
और सुनना कोई नहीं!
तो क्या बटेगा दुःख दर्द
फिर क्यूँ कहू,किसे कहू
अपने मन की व्यथा !!
सुना है कहने से
ख़ुशी दुगनी
और
दुःख होता है आधा
समय के साथ
लोगो ने भी ली है करवट
अब देखा है दुःख को दुगना
और ख़ुशी को आधा करते
फिर क्यूँ कहू,किससे कहू...
अपने मन की व्यथा !!!!
ना कहने में घुटन है
और कहने में समस्या
ऐसे में क्या करू,किस से कहू
अपने मन की व्यथा !!!!
एक ही प्रभु है
जो सुनता है सभी की
और कहता कुछ भी नहीं जानता है
सुनना किसी को नहीं
हे प्रभु,
तुम से ही कहूँगा
अपने हिर्दय की व्यथा!!!!
और तुम्हारी सुनना भी चाहूँगा!!!!!!

6 comments:

  1. बेहतरीन रचना और सही विचार.
    ईश्वर ही करता है सबका बेडा पार.
    शुभकामनायें

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  2. सुन्दर लेखन ! ब्लॉग पर आना अच्छा लगा

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  3. न कहने में घुटन .. कहने में समस्या ...
    बहुत खूब कहा है ... वैसे भी दर्द को बाँटना आसान नही होता ..... अच्छा लिखा है बहुत ही ...

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  4. Aap sabhi ka dhanyawaad jo aapko acchi lagi meri rachna ....aage bhi acchi lagegi aisa asha hai....

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