मेरा बचपन
हाथ आकर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई....
लग गया एक मशीन में मैं भी
शहर में लेकर आगया कोई
मैं खड़ा था की पीठ पर मेरी
इतिहार इक लगा गया कोई
ये सदी धुप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई
ऐसी महंगाई है की चेहरा भी
बेच कर अपना खा गया कोई
अब वो अरमान है ना वो सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाव से जब भी आ गया कोई.........
अच्छी कविता।
ReplyDeleteहिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है।
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