इस ठिठुरती ठंड में
मेरा ग़म क्यों नहीं ज़रा जम जाता
पिघल-पिघल कर बार-बार आखों से क्यों है निकल आता ।
घने से इस कोहरे में
हाथों से अपने चेहरे को नहीं हुँ ढुँढ पाता
फिर कैसे उसका चेहरा बार-बार नज़रों के सामने है आ जाता ।
बर्फीली इन रातों में
अलाव में ज़लकर कई लम्हें धुँआ बनकर है उड़ जाते
बस कुछ पुरानी यादें राख बनकर है कालिख छोड़ जाते ।
अब दिन इतने है छोटे की सुबह होते ही शाम चौखट पर नज़र आती है,
शाम से अब डर नहीं लगता
सर्दी तो वही पुरानी सी है
पर पहले बस ठंड थी
अब पुरानी यादें भी दिल को चीर कर जाती है ।
बर्फीली इन रातों में
ReplyDeleteअलाव में ज़लकर कई लम्हें धुँआ बनकर है उड़ जाते
बस कुछ पुरानी यादें राख बनकर है कालिख छोड़ जाते ।
अच्छा प्रयास है। यह पंक्तियां अच्छी हैं
हाथों से अपने चेहरे को नहीं हुँ ढुँढ पाता...इस पंक्ति में...हूं ढूंढ..आएगा-हुं ढुंढ की जगह
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसर्दी तो वही पुरानी सी है
ReplyDeleteपर पहले बस ठंड थी
अब पुरानी यादें भी दिल को चीर कर जाती है ।
in panktiyon ne to hamara bhi dil chiir diyaa..............behad khoobsoorat rachana.
इस ठिठुरती ठंड में
ReplyDeleteमेरा ग़म क्यों नहीं ज़रा जम जाता
पहली दो पंक्तिपढकर ही टिप्पणी बॉक्स तक चला आया हूं। क्या कमाल की बात आप लिख गए। बधाई। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
और समय ठहर गया!, ज्ञान चंद्र ‘मर्मज्ञ’, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
कुछ पुरानी यादें राख बनकर है कालिख छोड़ जाते ।
ReplyDeleteबहुत खूब!
आभार!!
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteमराठी कविता के सशक्त हस्ताक्षर कुसुमाग्रज से एक परिचय, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें
बहुत पसन्द आया
ReplyDeleteहमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ......
सर्दी तो वही पुरानी सी है
ReplyDeleteपर पहले बस ठंड थी
अब पुरानी यादें भी दिल को चीर कर जाती है ।
sach hai !
Aap sabhi ka dhanyawaad.......
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