जिस्म सीली लकड़ी जैसे सुलग रहा है
अपनी जली रूह की राख उड़ा कर
रुख हवाओ का दिखा रहा हू
फिर एक नयी चिता जला रहा हू
आज कुछ खुवाब बोए है कागज़ पर
कोशिश है नज्मो को बा - तरतीब करने की
किये जा रहा हू
फिर एक नयी चिता जला रहा हू
कुछ रह गया जो साथ न गया तुम्हारे
दिल की दराजों को फिर से खंगाल कर
आज वोह सामान निकाल रहा हू
फिर एक नयी चिता जला रहा हू
कुछ लम्हे टंगे है मेरे कमरे की दीवार पर
वक़्त की धूल सी जम गई है उन पर
उन्हे उतार रहा हू
फिर एक नयी चिता जला रहा हू
थोड़ी सी खताए रखी है अलमारी के ऊपर
सजाए पता नहीं कब तक आयेगी
एक ज़माने से इंतजार कर रहा हू
फिर एक नयी चिता जला रहा हू
बहुत वेदना झलक रही है ...सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसंगीता जी से सहमत। बेदना असीम है....
ReplyDeleteAap dono ka dhanyawaad jo aapne mere kavita ke liye samay nikala........
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteसाहित्यकार-महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें