खामोश है जुबां पर आँखें तो बोलती हैं
क्या क्या छुपा है दिल में हर राज़ खोलती हैं
आँखों में बसे अश्क भी आज़ाद हो गए
हम तो संभल संभल कर बर्बाद हो गए
आहों से भरी साँसे भी कुछ बात बोलती हैं
क्या क्या छुपा है दिल में हर राज़ खोलती हैं
हमने कभी जो चाहा किस्मत से वो णा पाया
महफ़िल के दौर में भी तनहा ही खुद को पाया
तन्हाईयाँ भी सांसों में कुछ दर्द घोलती हैं
क्या क्या छुपा है दिल में हर राज़ खोलती हैं
तुम तो थे मेरे अपने तुम ही न जान पाए
हाल - ए- दिल को मेरे पहचान ही न पाए
बिन मांझी के जिंदगी कि नैया ये डोलती है
क्या क्या छुपा है दिल में हर राज़ खोलती हैं..
हर राज़ खोलती हैं......
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteशौख!, सत्येन्द्र झा की लघुकथा, “मनोज” पर, पढिए!
naa samjhe jane kee vytha bade hee sunder tareeke se aapne vykt kee hai.
ReplyDeletesunder abhivykti.......
Aabhar
क्या बात है, बहुत बेहतरीन!
ReplyDeletewahhh
ReplyDeletekya baat hai......
behtreen.....
sundar prastuti
ReplyDeleteजिन्हें हम अपना समझते हैं अक्सर वो ही हानि जानते हमारा हाल ..... बहुत खूब लिखा है ...
ReplyDeletebahut khoob
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