Monday, April 11, 2011

प्रेयसी

मेरी इस "प्रेयसी" नामक कविता का आनन्द लीजिये और अपनी प्रतिक्रिया दीजिये.......

छोड़ देता हूँ निढाल
अपने को उसकी बाँहों में
बालों में अंगुलियाँ फिराते-फिराते
हर लिया है हर कष्ट को उसने.

एक शिशु की तरह
सिमटा जा रहा हूँ
उसकी जकड़न में
कुछ देर बाद
ख़त्म हो जाता है
द्वैत का भाव.

ग़हरी साँसों के बीच
उठती-गिरती धड़कनें
खामोश हो जाती हैं
और मिलाने लगती हैं आत्मायें
मानों जन्म-जन्म की प्यासी हों.

ऐसे ही किसी पल में
साकार होता है
एक नव जीवन का स्वप्न.

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