Monday, September 20, 2010

इस ठिठुरती ठंड में

इस ठिठुरती ठंड में
मेरा ग़म क्यों नहीं ज़रा जम जाता
पिघल-पिघल कर बार-बार आखों से क्यों है निकल आता ।

घने से इस कोहरे में
हाथों से अपने चेहरे को नहीं हुँ ढुँढ पाता
फिर कैसे उसका चेहरा बार-बार नज़रों के सामने है आ जाता ।

बर्फीली इन रातों में
अलाव में ज़लकर कई लम्हें धुँआ बनकर है उड़ जाते
बस कुछ पुरानी यादें राख बनकर है कालिख छोड़ जाते ।

अब दिन इतने है छोटे की सुबह होते ही शाम चौखट पर नज़र आती है,
शाम से अब डर नहीं लगता
सर्दी तो वही पुरानी सी है
पर पहले बस ठंड थी
अब पुरानी यादें भी दिल को चीर कर जाती है ।

9 comments:

  1. बर्फीली इन रातों में
    अलाव में ज़लकर कई लम्हें धुँआ बनकर है उड़ जाते
    बस कुछ पुरानी यादें राख बनकर है कालिख छोड़ जाते ।
    अच्छा प्रयास है। यह पंक्तियां अच्छी हैं

    हाथों से अपने चेहरे को नहीं हुँ ढुँढ पाता...इस पंक्ति में...हूं ढूंढ..आएगा-हुं ढुंढ की जगह

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  3. सर्दी तो वही पुरानी सी है
    पर पहले बस ठंड थी
    अब पुरानी यादें भी दिल को चीर कर जाती है ।

    in panktiyon ne to hamara bhi dil chiir diyaa..............behad khoobsoorat rachana.

    ReplyDelete
  4. इस ठिठुरती ठंड में
    मेरा ग़म क्यों नहीं ज़रा जम जाता
    पहली दो पंक्तिपढकर ही टिप्पणी बॉक्स तक चला आया हूं। क्या कमाल की बात आप लिख गए। बधाई। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

    और समय ठहर गया!, ज्ञान चंद्र ‘मर्मज्ञ’, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

    ReplyDelete
  5. कुछ पुरानी यादें राख बनकर है कालिख छोड़ जाते ।
    बहुत खूब!
    आभार!!

    ReplyDelete
  6. बहुत पसन्द आया
    हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
    बहुत देर से पहुँच पाया ......

    ReplyDelete
  7. सर्दी तो वही पुरानी सी है
    पर पहले बस ठंड थी
    अब पुरानी यादें भी दिल को चीर कर जाती है ।

    sach hai !

    ReplyDelete