Friday, October 22, 2010

पहली बूंद!


मासूम फूलो से

पहले चटकी कलियों ने देखा

फिजा में बारिश की पहली बूंद!

रुई के कोमल फाहे सी

फिर अनगिनत

बूंद

इधर उधर अटकी पड़ी थी

लेकिन

उस पहली बूंद

के लिए ही

तृषित होठ

सुर्ख कलियों

के

विहस- लरज उठे थे

पहले बूंद ने

चुपके से उसके करीब

आकर कहा था

जगह दो मुझे

अपने प्रतिशारत होटों पर

मेरे पीछे आ रही है दौड़ी

वर्षा की अनगिनत बुँदे

तुम्हारी शरण में तोड़कर

कैद बादल की

काले सजीलेपन की

तब कलियों के

होठ लगे थे खुलने!!!

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