Friday, April 1, 2011

नाम

नहीं, नहीं
इसे नाम ना दो.
इतनी भावनायें, इतना प्यार
इतनी विविधता
'एक' नाम में कैसे आ सकेगा?
नाम दे कर तुम अधूरा बना दोगी इसे.
क्युंकि नाम देना, बांधना है.

किसी ने मुझे नाम दे दिया.
अब मैं सिर्फ़ 'सिद्धार्थ ' ही हूँ
चाहूँ,
तो भी वैभव, आशीष या राधिका नहीं हो सकता.
नाम देने वाले ने
कुछ और होने का हक मुझसे छीन लिया.
अब मैं कोशिश भी करूँ,
तो भी -
कोई मुझे कुछ और नहीं होने देगा.

मैं,
मेरे और तुम्हारे रिश्ते को
खुद की तरह मजबूर नहीं देखना चाहता.
सो, उसे नाम ना देना.

नाम के बंधन से स्वतंत्र होगा -
तो उसमें संभावनायें होगीं
अपेक्षाएँ नहीं.
वो जब चाहे, जो चाहे बन सकेगा.

और हर परिस्थिति में टिके रहने के लिये,
बदलाव की ताकत जरूरी है.
सो इस रिश्ते को नाम ना देना,
नाम - मजबूरी है.

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