Thursday, July 8, 2010

बालविधवा

दर्द के साये में भी जवां हो गयी ख्वाहिशें,
तमाम बन्दिशें फिर भी मिटती नहीं तमन्नायें,
बालविधवा हूँ मैं, कितना समझाया मन को,
फिर् भी बाँवरा मन करे नित नयी कामनायें

बचपन से देखा तन पर श्वेत वस्त्र ही,
क्या करुँ जो मन रंगों को देख अकुलाता है,
सुनकर खनक चूड़ियों की किसी कलाई में,
मन फिर मन है, कभी मचल ही जाता है.

ना देश के लिये ना अपने लिये,
मिटा रहा मेरा जीवन समाज किसके लिये.
जिसे ना जाना ना समझा कभी मैने,
सारी उम्र आँसू कैसे बहाऊँ उसके लिये.

ईश्वर का वरदान है ये मानव जीवन,
ना जलाओ चिताओं के साथ अबलाओं को...
बदला है वक्त, बदलो ये समाज भी,
अब चिता नहीं, डोली दो इन विधवाओं को.............

This is not my poem this poem is belong to Sonal ji

3 comments:

  1. अति मार्मिक! उम्दा संदेश!!

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  2. अच्छा और गहरे मन से लिखते हो ...शुभकामनाएं !

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  3. Dhanyawaad aap sabhi ka jo aapko pasand aaya.......

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