Monday, July 26, 2010

माँ तुम्हारा खत

माँ
अब तुम्हारा खत
मुझे वो उष्मा नहीं देता
जब पहले पहल तुम्हारे आँचल से दूर
अनजानी हवाओं में तनहा हुआ था
पहले पहल जब मेरे पैरों के पास
ज़मीन हुई थी
और मेरे पंख कुतर गये थे
माँ तभी पहले पहल
जब तुम्हारा खत मिला था
तो उसे पढ पाना मुश्किल हो गया था
मेरे बेसब्र अनपढ आँसुओ के उतावलेपन में
और माँ
उस दिन सितारे फीके नहीं लगे
चाँद से दोस्ती हो गयी
और उस दिन मैं गुनगुनाता ही रहा घंटों

माँ!
जैसे जैसे सूरज मेरी छाती पर चढता जाता है
जैसे जैसे ज़िन्दगी मरुस्थल होती जाती है
मैं अपनें जले पाँव और छिली छाती लिये
किताबें ओढ लेता हूँ
दिमाग का भारीपन भुला ही देता है तुम्हे
मैं काश कि तुम्हारी गोद में सिर रख
आखें बंद करता
और वक्त की सांसें थम जाती
और माँ जब भी एसा सपना आता है न
तब मुझे अपना रूआसापन भला नहीं लगता
मेरे रोनें पर तुम्हे दुख होता होगा है न माँ...

क्या समय बीतता है तो अतीत पर
जम जाती है मोम की परत
तुम्हारे खत अब भी तो आते हैं
वैसे ही खत
वे ही नसीहतें
वे ही चिंतायें
जैसे कि तुम्हारे लिये वक्त ठहरा हुआ हो..

माँ तुम बहुत भोली हो
और भागती हुई दुनियाँ तुमसे बहुत आगे निकल चुकी है
मैं भी बदल गया हूं माँ
बडा हो गया हूं शायद
कि अब तुम्हारे खत
मुझे वो उष्मा नहीं देते
जबकि तुम्हारे खत की खुश्बू वैसी ही है
तुम्हारे खत पढ कर मन मोर नहीं होता लेकिन
बादल हो जाता है माँ
और माँ लगता है
भट्टी में तप कर कुन्दन बन निकलूं
क्योंकि दुनिया की सबसे अच्छी माँ मेरी माँ है..

लेकिन माँ
एसा भी होता है
जब दिनों तक तुम्हारे खत नहीं आते
तो दिनों तक कुछ भी अच्छा नहीं लगता
सितारे उदास हो जाते हैं
चाँद गुमसुम
एसा अब भी होता है लेकिन..

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