Thursday, July 1, 2010

पापा की याद में

दस बरस हो चुके हैं फिर भी
आज भी आप ज़िंदा हो।
आज भी ऐसा लगता है कि
करते आप मेरी चिंता हो।

पितृ ऋण एक ऐसा ऋण
शय्या पर पूरा कहा जाता।
मैं कहता हूं, ये ऐसा ऋण,
संस्‍कार बिन पूर्ण न हो पाता।

कोसों पैदल चलकर भी
आपने महंगी फ़ीस भरी।
हम बेटे कुछ लायक बनें,
इस पर ज़िंदगी नाम करी।

याद आ जाता है बरबस
आज भी आपका दौड़े आना,
जब भी मैं खड्ढों में अटका
अपने काम को छोड़े आना।

मेरी हर बेबसी को बरबस,
आंखों ही आंखों में समझ जाना।
कैसे भूलूं आपको पापा,
क्‍यों मुश्किल फिर आपको पाना?

सब कुछ पा सकता हूं शायद,
पर नहीं मिल सकती वो सुरक्षा।
जो आप सिखा गए हो मुझे
नहीं मिल सकती अब वो शिक्षा।

भूले नहीं भूले हैं वो दिन
एक्‍ज़ाम के वो दुश्वारी भरे दिन
जब पढ़ते पढ़ते मैं सो जाता
और आपको अचानक कोने पाता
उठाते मुझे कि बेटा उठ जा
कल के दिन तक मेहनत कर आ
फिर उठकर मैं जो पढ़ता
तो अगले दिन बस
अच्‍छा ही करता।

मृत्‍यु शैया पर आपका होना
लगा मुझे छिन गया बिछौना
मालूम न था कि हंसू या रोऊं,
दिख रहा था पूरे परिवार का रोना।

दस बरसों में छिन गया बचपन,
आपको पाया विचारों में हरदम,
हर वक्त ग़लत करने से रोका,
कुछ करने से पहले आपको सोचा,
आपकी साख कहीं मलिन तो न होगी,
हर वक्त यही एक विचार रहता।

फ़ादर्स डे आएं और जाएं
सब पिता का स्‍नेह पाएं।
पर हम से पितृविहीन
अपने पिता को बस
विचारो में पाएं।

फ़ादर्स डे मेरा हर एक दिन है।
संघर्षमयी ही बस जीवन है।
सुरक्षा की अब आस करूं क्‍या
शान्‍ति से समझो, बस अनबन है।

3 comments: