कभी भटकन आये सही रास्ता दिखा देना रहू वाकिफ जहा भर की निगाहों से दुआ देना अगर कही आये कही से भी हवाए बेमुरवत की कभी भूल कर उनको किसी घर का पता देना लगी है आग नफरत की अगर दिल में किसी के भी कसम ईमान की तुमको न तू उसको हवा देना कही ऐसा न हो जाये खुदा खुद को समझ बैठू दिखा कर आईना मुझको मुझे मुझसे मिला देना!!!!!!!
पुरे सफ़र में हम साथ थे चांदनी लपेटे हुवे तुम और मै तुम्हे पुकारता हुवा ..अपनी बाहों में ..! वो खुबसूरत सा चेहरा ..वो निखार.. गालो की लाली वो पाजेब की छनकती आवाज वो फूलो के कंगन होटो पर मेरा नाम वो एक दुसरे पर न्योछावर होती नजरे ..!
वो चाँद भी हम पर हसने लगा था .. होश ..आहोश का वो खोना देर तक बस तेरे चेहरे में गूम हो जाना बाते ..बाते...बस तेरी बाते और मेरा वो तुम्हे बस सुनते रहना..
क्या बताऊ जानम ...क्या ख्वाब था ..!!! अब जाकर समझ में आ रहा है के कितने फासले है हम दोनों में ..
काश मै इस ख्वाब से नहीं जाग पाता ... ख्वाब को ख्वाब हि रहने देता..
पहले जो रहते थे सवालो में आज वोही सामने आये जवाबो में हमने पहल कुछ न की थी दिल में वो सरीक हुए चुपके चुपके आँखों से उनका मुस्कुराना अनबुझ सी बातें बताना जाहिर था उनका सर्माना राज बताये चुपके चुपके......चाहत के धागों में बंध कर खवाहिश के आकाश में उड़कर दिल की बातों में छुप छुप कर वो मुझे बतलाये चुपके चुपके आज दिल सरफ़रोश हुआ जाये फ़ना की कशिश में लुटा जाये फलक समेटने को जी चाहे मन मदहोश हुआ जाये सांसें रोकू मैं चुपके चुपके.....
वक़्त सुकरात मुझको बनाता रहा मेरा फन मुझ को अमृत पिलाता रहा उसकी पलकों से अरिज पे जो गिरा एक सितारा बहुत झिलमिलाता रहा साडी सचाई चुप रही और वो सब को झूटी कहानी सुनाता रहा ये सियासत बनी एक तवायफ का घर कोई आता रहा कोई जाता रहा उनकी यादो के जख्म अब तक हरे वक़्त मरहम पर मरहम लगाता रहा सूखे पते की मानिंद थी खावाहिसे वक़्त झुला सा उनको झुलाता रहा तितलियों पर तो पाबन्दी लग गयी वक़्त फूलो से खुशबू चुराता रहा धीरे धीरे नयी एक गजल बन गयी कौन एहसासे मोहोबत जगाता रहा!!!!!!
सहरा न दस्त और न गुलजार तक गए निस्बत थी यार से तो दरेयार तक गए समां सुकूने दिल का कोई भी न मिल सका सौ बार हम भी दोस्तों बाजार तक गए मुल्को की सरहदों का परिंदे को इल्म क्या इस पार आगये कभी उसपर तक गए था पूछना जो हाल मेरा मुझ से पूछते बेवजह गुल के पास गए खार तक गए "सिद्धार्थ"फिर उनकी खबर छप नहीं सकी देने बया जो दफ्तरे अखबार तक गए!!!!!!!!
अपने अंजाम से बैखौफे खतर बैठा है काम उसको जो नहीं करने थे कर बैठा है उसके होठो पे मेरे प्यार की सुर्खी है मगर उसकी आँखों में किसी और का दर बैठा है हर परिंदा नए मौसम के अजाबो से यहाँ सहमा सहमा सा समेटे हुए पर बैठा है क्या कहू रोने से दिल पर मेरे क्या कुछ गुजरी नमी बुनियाद में आई तो ये घर बैठा है मुझसे तकलीफ किसी की नहीं देखी जाती कौन ये राह में बा दीद-ऐ-तर(आँखों में आंशु) बैठा है हर कदम है यहाँ ऐबो की नुमाइश किस लिए शहर में तू लेकर हुनर बैठा है
जिंदगी से लढ़ सकता हु मै तेरे कदमो में ला सकता हु मै .. दूर क्षितिज तक भी मेरी नजरे है जमीं को आंसमा से मिला सकता हु मै... जहाँ भी जाऊ पर तेरी निगाह रख मुझ पे जो भी करू हासिल तेरा हक रख मुझ पे ना मिल सके गर जिंदगी में कभी... तेरे दिल की सींप में यादो के मोती संजोये रख ..
कैसे बताऊँ जानम तुम क्या हो मेरे लिए रेगिस्तान में भटके हुवे प्यासे की एक बूंद हो तुम रूह से निकली हुवी सरगम हो तुम एकांत में ली हुवी समाधी हो तुम अक्स में समायी हुवी जान हो तुम..
क्यों नहीं आती हो मेरे पास हमेशा के लिए ...तुम ..?
किस तरह यकीं दिलाऊ में याद रखु न भूल पाऊ में चंद लब्जो ने साथ छोड़ दिया प्यार भला कैसे जताऊ मैं अपनी नजरो से पूछ कर देखो क्या बचा है जिसे छुपाऊ में दोस्ती हो गयी है आंधी से रोशनी किस लिए बचाऊ में दिल है टुटा हुआ सा ऐ हम दम क्या खिलौना तुझे थमाऊ में
कैसी कैसी हस्तियाँ आखिर जमी में सो गयी कैसी कैसी सूरते मिटटी की आखिर हो गयी फिर भी पावन ही रही वो फिर भी निर्मल ही रही सारे जग का मैल गंगा जी की लहरें धो गयी वो मेरे बचपन के दोस्त वो मेरा दोस्ताना जाने किस नगरी गए किस देश जाकर खो गए देख लेना एक दिन फसले उगेगी दर्द की दिल की धरती में मिरी आँखें जो आंसू बो गए तुम भी आ जाओ हमारा हाल तुम भी देख लो बदलिय आकर हाल पर रो गए पूजते है हम उसे मंदिर की मूरत की तरह अपनी आँखें उसके पैरो में लिपट कर सो गयी नफरतो के मौसम की बादसाहत है दोस्त अब जबाने भी कटारो के मुवाफिक हो गयी..........
मेरे से वजूद मेरा है कह दे गरूर मेरा है काश!कहने की आदत ही छोड़ दी मैंने जो हो रहा है सब नसीब मेरा है मैंने छोड़ी थी कभी राह उस पर नहीं गया भले ही उसपर खड़ी आज नई बस्ती थी बुतपरस्ती मेरी फितरत थी न उसे छोड़ सका कोई खाफिर कहे इसको भी मैं न झेल सका अब कुछ बचा नहीं खुद पर सितम ढाने को फिर हुयी रात और तेरे याद में दिल डूब गया.........
देखा है तुमको जब से दिल में एक एहसास करा गयी तुम दिल के सुने आँगन में दस्तक दे गयी तुम नम पलकों से कुछ कह गयी तुम धीरे से चुपके से नम आँखों से घायल कर गयी तुम धीरे से चुपके से मन को छु गयी तुम धीरे से चुपके से नजरो का जाम पिला गयी तुम.......
जब भी कोई बात बिगड़ जाये वो सभी बातें याद आये पता चलता है कौन है अपना कौन पराये अपना हाल भी पूछने नहीं आई वो ,हम कितना कराहे पहले कहती थी तेरे बिना मर जाउंगी प्यारे एक पल भी नहीं कटेगा बिन तेरे सहारे जब कोई बात बिगड़ जाये वो सभी बात याद आये एक दिन मैं उससे मिला और पूछा क्या कारण है जो तुमने मुझे ठुकराया क्या मेरा साथ तुझे रास नहीं आया काफी मस्कात के बाद मैडम का गुसा समझ में आया अरे!मैंने तो उसका मोबाइल का रेचार्गे कूपन ही नहीं भरवाया
रात की तीरगी मिटाने के लिए जल गया घर दिया जलाने के लिए तेज बारिश से बच सकू कैसे चार तिनको के आशियाने के लिए शर्म आती है उनको जाने क्यूँ? नाम लेकर मुझे बुलाने में कुछ हवा की भी शरारत है रुख से तेरा नकाब हटाने में हाथ क्या आये जख्मे गम के सिवा एक पत्थर से दिल लगाने में दिल की दुनिया बदल गयी है "दोस्तों" उनके एक बार मुस्कुराने में........
रात के अँधेरे में कोई दिया जल उठे , तो जाने क्यूँ हम मोम सा पिघल जाते है कल हमारे हाथों की लकीरे न बदलेंगी, मगर जिन्दगी के जुड़े लोग बदल जाते है कभी कभी तकलीफे बहुत बढ़ जाती है, ऐसा लगता है न आशा है न निराशा कुछ नजर नहीं आता है आगे , आये भी तो कैसे छाया है घना कोहरा... कभी कभी बंधा बंधा सा रहता है, अपने ही सोच के घेरे में डूबने से लगते है हम अपने ही यादों के धुंद अँधेरे में कोई हो न हो संग अपने, अगर संग यादों की तस्वीर है लोग रास्ते बदल भी ले तो क्या, हमेशा साथ अपने हाथों की कुछ लकीर है........
वो मेरे जीवन की सबसे काली सुबह थी उस दिन मैं नहीं गया काम पर और मुझे डराते रहे दिन भर काले सपने उस रात में जागता रहा और बड़बड़राता रहा रात भर........ वैसी रात मैंने कभी देखी नहीं थी और न देखू शायद उस रात की सुबह मेरी धमनियों का रक्त ठंढा और नीला पड़ चुका था और ढकी हुयी मेरी लाश बर्फ की सफ़ेद चादर से उस रात की सुबह में मर चुका था लेकिन साँस थी की नहीं छोड़ रही थी साथ....... उस रात की सुबह दिन भर रिसता रहा लहू मेरे बदन से और मैं उसको पीता रहा.... उस दिन मैंने जाना अपने लहू का स्वाद की वह कितना जायेकेदार था.... उस रात की सुबह एक काला और डरावना सूरज निकला उस रात की सुबह फुफकारती रही हवाये काले नागो सी.... उस रात की सुबह बरसते रहे आकाश से गोले और फूटते रहे मेरे शरीर में फफोले उस सुबह मैंने अपने ठन्डे जिस्म और रुकी हुयी साँस को देखा उस रात मैंने अपने लहू को थराते और कापते देखा उस रात एक पहाड़ टूट कर गिर पड़ा मेरे जिस्म पर और उसके नीचे दबा मैं लिखते रहा कवितायेँ उस रात भर जलते रहे वेद और ऋचाये रोती रही उस रात मैंने एक जन्म में कई जन्मो की नरक यात्रा की........
लड़की रो रही है..... कारण सब को मालूम है मगर सब चुप है क्यूँ की चुप हो जाएगी वो अपने आप! कब तक रोएगी, एक दिन.....दो दिन..... हफ्ता.....महिना..... कितने दिन??? नहीं!कुछ ही देर में अपने आंसू पोछ सामान्य हो जाएगी.... और फिर से नित्य कर्म में खुद को ढाल लेगी.....! अब पुनः:पंख फरफरा कर उड़ानों की बात नहीं रख पायेगी वो.... बहुत कुछ कहेंगे उसके हाव भाव मगर उन्हें अनदेखा कर दिया जायेगा........ अन्तः:चुपियां जीत नहीं पायेगी और अपने आप हार जाएगी.... पराये की दहलीज पर.......
गर उनका बस चले तो बेच देंगे आसमान सोख लेंगे सागर चुरा लेंगे पहाड़ पी जायेंगे नदियाँ सिर्फ इस लिए क्यूँ की उन्हें जड़ाने होंगे अंगूठी में नग घर में संगमरमर चड़ने के को मैतिज सांत्रो और इंडिका कार और दामादो को देना होगा बेटियों की उचाई तक नबे करोड़ का नगीना.....
आदमी की तरह आदमी नहीं थे मौजूद लाश की तरह लाश नहीं थी आँखें खुली हुयी थी एकटक देखती मुह भी खुला जैसे कहने को कुछ अभी अभी भीड़ का मुह भी खुला था लेकिन आवाज खो गयी थी उसकी थोरा हटकर पड़ा था चाकू चाकू नौ इंच का था नौ इंच के चाकू का घाव नौ इंच का नहीं था मुस्किल था घाव का गहरायी नापना की घाव की उतनी नहीं होती जितनी हथियारों की लम्बाई नापना मुस्किल था घाव की गहराई जहा वह थोरा हटकर पड़ा था चाकू चाकू इस्पात का था यक़ीनन वो आदमी भी इस्पात का था जिसने इस्तेमाल किया था चाकू और जिसपर किया गया था इस्तेमाल वो इस्पात का आदमी नहीं था आदमी इस्पात के नहीं होते हां!जिन्दगी इस्पात की हो सकती है कोहरा कोहरा होता जा रहा है सब कुछ और कोहरे में धबे जैसा ये की धबे में भी सब कुछ पहचान लेने की षमता है आदमी के पास बावजूद इसके गहराता जाता है धबा कत्ल को कत्ल कहना मुस्किल होता जा रहा है आदमी के लिए लाश के लिए मुस्किल नहीं कुछ तैर जाती है दरिया में लाश और जिन्दगी डूब जाती है अक्सर तैरते तैरते.......
देहियाँ के आपन, हिस्सा , बेगान हो गइल । एगो बाँहि कटल भारत के, पाकिस्तान हो गइल ।। जब, देश के, सपुतवे, एके आजा़द करौवलें । तब जाते-जात फिरंगी , तीर अइसन छोड़ि गइलें । सोनवा के ई चिरइया, लहलुहान, हो गइल । एगो बाँहि कटल भारत के, पाकिस्तान हो गइल ।। मजहब, के नाव लेके, भाई - भाई, लड़ि गइलें । राजनीति करे वाले , एगो , चीन्हा खींच गइलें ।। देश, बाँटे वाला , लोगवा, त महान हो गइल । एगो बाँहि कटल भारत के, पाकिस्तान हो गइल ।। रिश्ता, सुधारे खातिर, किरकेटो, खेलावल गइल । दुन्नू ओर से शान्ती के, बसवो चलावल गइल ।। ई देखि के, अमेरिका , परेशान हो गइल । एगो बाँहि कटल भारत के, पाकिस्तान हो गइल ।। ई काश्मीर मुद्दा , भी रही ना अझुराइल । झगरा मिटा दी सगरो, अब प्यार के मिसाइल ।। ई "अनूप" के कलम से, एलान, हो गइल । एगो बाँहि कटल भारत के, पाकिस्तान हो गइल ।। देहियाँ के आपन, हिस्सा , बेगान हो गइल । एगो बाँहि कटल भारत के, पाकिस्तान हो गइल ।। Not Mine This poem is belong to anup bhai......
न जाने किसे धुन्धती है मेरी नजर खामोश है लब मगर बोलती है नजर वफ़ा की उम्मीद किस से रखु पल भर में तो बदल जाती है नजर अपने पराये लगते है कभी और कभी पराये अपने नहीं जानता किसे खोजती है मेरी नजर इस धरा के रंगहीन रिश्तो से बेखबर केवल सून्य को निहारती है मेरी नजर......
जिस वक़्त भरे घर में तन्हा मुझे पाया हैभूली हुयी यादों नें जी भर कर रुलाया हैइस धुप के जंगल में जाऊ भी कहा जाऊसूरज से शिकायत क्या दुश्मन मेरा साया हैमैं अपने चरागों की किरण को भी तरसता हूआंधी में जिन्हें मैंने भुझने से बचाया हैदुनिया के मिटाने से मिटते है कही रिश्तेवो आज भी है अपना कहने को पराया हैवो रात वो तन्हाई एक अंजुमन है आईफिर याद मुझे आई फिर उसने बुलाया हैजीने का हमें अंदाज आया है न आएगाये सच है की जीने का इल्ज़ाम उठाया है.!!!!!!!!!!
अचानक, इतने दिनों बाद, क्यों आ गए तुम, कल मेरे सपने मे? माना की तुम मेरे यादो मे संचित हो, माना की तुम मेरे जीवन-परयन्त प्रजवलित भावों के मधुर-दीप हो मेरी यादो मे सांसो मे रचे-बसे हो एक नि:शेस व मधुर अस्तित्व हो ! फिर भी क्या मिल जाता है बाहर आकर मेरे मनो मस्तिस्क को झकझोरने से? क्या तुम भूल जाते हो की मेरा एक वर्तमान जीवन भी है जहाँ मैं स्वंय हूँ मेरा प्रिये जीवनसाथी है, मेरा प्यारा दुलारा पुत्र है, जिनसे मुझे पृथक नहीं अपितु जिनमे मुझे रमे रहना है तुम यह मत भूलो की चाहे तुम कितनी भी सर पटक लो अब तुम्हे अतीत बनकर ही रहना है! अतः व्यर्थ है अन्त: के ग़र से यादो के संचित कोष से बाहर आना और करना प्रयास मुझे परेशान करने का अब तो तुम्हारी हमारी भलाई इसी मे है की तुम यथास्थान बने रहो (विस्वास रखो की तुम्हारा मेरे अन्त: मे स्थित वह स्थान कभी छिनेगा नहीं तुमसे) और मुझे अपने वर्तमान मे जीनो दो !
जिन्दगी के खाको में रंग भर गए होते काश मेरी आँखों के खवाब मर गए होते दर-ब-दर भटकना नसीब है अपना तू अगर सदा देता हम ठहर गए होते फिर हवा ने शाखों को बेलिबास कर डाला जख्म पिछले मौसम के कुछ तो भर गए होते खुद को जोड़े रखा है शायिरी में शायिरी न होती जो हम बिखर गए होते इन उदास रातों की सुरमई थकन लेकर कोई मुंतिजर होता हम भी घर गए होते.......
सब से छुपा कर दर्द को वो मुस्कुरा दिया उसकी हसी ने तो आज मुझे भी रुला दिया लहजे से उठ रहा था दर्द का धुआ चेहरा बता रहा था की कुछ गवा दिया आवाज में ठहराव था आँखों में नमी थी और कह रहा था की मैंने सब कुछ गवा दिया जाने क्या उस को लोगो से थी शिकायत तन्हाई के देस में खुद को बसा लिया खुद भी वो हम से बीचर कर अधुरा सा हो गया मुझको भी इतने लोगो में तन्हा बना दिया.......
कागज कागज हर्फ़ सजाया करता है तन्हाई में सहर बसाया करता है कैसा पागल शख्स है सारी सारी रात दीवारों को दर्द सुनाया करता है रो देता है अपने आप अपने ही बातो पर फिर खुद को अपने आप हँसाया करता है....
एक अजनबी से एक दिन मुलाकात हुयी दिल के कोने में एक अनकही एहसास जगी कभी सोचा न था की जिन्दगी कब इतनी हसीन हुई सपनो ने अंगराई ली रातें मेरी रंगीन हुई एक अजनबी से एक दिन मुलाकात हुई मन के समंदर में हलचल हुई खवाबो की हकीक़त से मुलाकात हुई.... रूह से जिस्म से पहचान हुई चांदनी की रात से बात हुई अब वो अजनबी नहीं मुझे मंजिल से मुलाकात हुई......