Thursday, April 8, 2010

ओ मेरे सुन्दर अतीत....

अचानक, इतने दिनों बाद,
क्यों आ गए तुम,
कल मेरे सपने मे?
माना की तुम मेरे यादो मे संचित हो,
माना की तुम मेरे जीवन-परयन्त प्रजवलित
भावों के मधुर-दीप हो
मेरी यादो मे सांसो मे रचे-बसे हो
एक नि:शेस व मधुर अस्तित्व हो !
फिर भी
क्या मिल जाता है
बाहर आकर मेरे मनो मस्तिस्क को झकझोरने से?
क्या तुम भूल जाते हो की मेरा एक वर्तमान जीवन भी है जहाँ मैं स्वंय हूँ
मेरा प्रिये जीवनसाथी है,
मेरा प्यारा दुलारा पुत्र है,
जिनसे मुझे पृथक नहीं अपितु
जिनमे मुझे रमे रहना है
तुम यह मत भूलो की
चाहे तुम कितनी भी सर पटक लो
अब तुम्हे अतीत बनकर ही रहना है!
अतः व्यर्थ है अन्त: के ग़र से
यादो के संचित कोष से बाहर आना
और करना प्रयास मुझे परेशान करने का
अब तो तुम्हारी हमारी भलाई इसी मे है की
तुम यथास्थान बने रहो (विस्वास रखो की तुम्हारा मेरे अन्त: मे स्थित
वह स्थान कभी छिनेगा नहीं तुमसे)
और मुझे अपने वर्तमान मे जीनो दो !

1 comment:

  1. किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।

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