Wednesday, April 14, 2010

लाश.........

आदमी की तरह आदमी नहीं थे मौजूद
लाश की तरह लाश नहीं थी
आँखें खुली हुयी थी एकटक देखती
मुह भी खुला जैसे कहने को कुछ अभी अभी
भीड़ का मुह भी खुला था
लेकिन आवाज खो गयी थी उसकी
थोरा हटकर पड़ा था चाकू
चाकू नौ इंच का था
नौ इंच के चाकू का घाव
नौ इंच का नहीं था
मुस्किल था घाव का गहरायी नापना
की घाव की उतनी नहीं होती
जितनी हथियारों की लम्बाई
नापना मुस्किल था घाव की गहराई जहा
वह थोरा हटकर पड़ा था चाकू
चाकू इस्पात का था
यक़ीनन वो आदमी भी इस्पात का था
जिसने इस्तेमाल किया था चाकू
और जिसपर किया गया था इस्तेमाल
वो इस्पात का आदमी नहीं था
आदमी इस्पात के नहीं होते
हां!जिन्दगी इस्पात की हो सकती है
कोहरा कोहरा होता जा रहा है
सब कुछ और कोहरे में धबे जैसा
ये की धबे में भी सब कुछ
पहचान लेने की षमता है आदमी के पास
बावजूद इसके गहराता जाता है धबा
कत्ल को कत्ल कहना
मुस्किल होता जा रहा है आदमी के लिए
लाश के लिए मुस्किल नहीं कुछ
तैर जाती है दरिया में लाश
और जिन्दगी डूब जाती है अक्सर तैरते तैरते.......

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