Sunday, April 4, 2010

पतझर......

वो दर्द और वो बदहाली के मंजर नहीं बदले
बस्ती में अँधेरे के भरे घर नहीं बदले
हमने तो बहारो का महज जिक्र ही सुना है
इस घर से आज भी पतझर नहीं बदले
खंडहर पर ईमारत तो हमने खड़ी की
पर भूल ये की की नीव के पत्थर नहीं बदले
बदले है महज कातिल और मुखोटे
वो कत्ल के अंदाज और वो खंजर नहीं बदले....

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