रात के अँधेरे में कोई दिया जल उठे ,
तो जाने क्यूँ हम मोम सा पिघल जाते है
कल हमारे हाथों की लकीरे न बदलेंगी,
मगर जिन्दगी के जुड़े लोग बदल जाते है
कभी कभी तकलीफे बहुत बढ़ जाती है,
ऐसा लगता है न आशा है न निराशा
कुछ नजर नहीं आता है आगे ,
आये भी तो कैसे छाया है घना कोहरा...
कभी कभी बंधा बंधा सा रहता है,
अपने ही सोच के घेरे में डूबने से लगते है हम
अपने ही यादों के धुंद अँधेरे में
कोई हो न हो संग अपने,
अगर संग यादों की तस्वीर है
लोग रास्ते बदल भी ले तो क्या,
हमेशा साथ अपने हाथों की कुछ लकीर है........
BEAUTIFUL
ReplyDeleteग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
ReplyDeleteJo aapke man mein aata hai usko likh daliye ye mat sochiye ki accha lagega ya nahi....maine to yahi sikha hai....
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