कितनी छोटी नाव जीवन की, गहरी लम्बी झील।
कितने सपनों को खोले गी, उलझी जीवन की रील।।
जर-जर मिट्टी की काया है, पीछे रेगिस्ताजन।
कोने-कातर से लटक रहे है, फटे पुराने प्राणा।
क्याउ-क्याह करलू इस जग में, दो दिन का मेहमान।
छिटक रहा जीवन का प्याटला, खाली इसको मान।
कितना चला जब पीछे देखा, कोस, फरलांग, या मील।।
जीवन तपिश की धूप में, मिली नहीं कहीं छांव।
घर अपना था जिस जगह, दिखा नहीं वो गांव।
शूल, धूल और भूल डगर पे, नंगे मेरे पांव।
आँख खोल कर देखा जग को, पाती नहीं हे थांव।
थोथ दंभ, मैं और अहंकार , झूठी जीवन की शील।।
सूखे पत्तेभ, और टूटी डंडी, ये कैसा मधुमास।
रात धुएँ की छांव ढूँढ़ती, कोई दूर नहीं पास।
अपने अपनों को छले, किसकी करे अब आस।
ऐसे खेतों को ढ़ूढों अब, बोए जहां विशवास।
अपनी छवि को ही तरस गई, सूखी पड़ी ये झील।।
Not Mine........... मनसा आनंद मनसा
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