Saturday, April 24, 2010

बा दीद-ऐ-तर


अपने अंजाम से बैखौफे खतर बैठा है
काम उसको जो नहीं करने थे कर बैठा है
उसके होठो पे मेरे प्यार की सुर्खी है मगर
उसकी आँखों में किसी और का दर बैठा है
हर परिंदा नए मौसम के अजाबो से यहाँ
सहमा सहमा सा समेटे हुए पर बैठा है
क्या कहू रोने से दिल पर मेरे क्या कुछ गुजरी
नमी बुनियाद में आई तो ये घर बैठा है
मुझसे तकलीफ किसी की नहीं देखी जाती
कौन ये राह में बा दीद-ऐ-तर(आँखों में आंशु) बैठा है
हर कदम है यहाँ ऐबो की नुमाइश
किस लिए शहर में तू लेकर हुनर बैठा है

2 comments:

  1. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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  2. !!!!!!!!!!!!!!!!!!!सुंदर अति सुंदर !!!!!!!!!!!!!!!!!!!
    हर कदम है यहाँ ऐबो की नुमाइश
    किस लिए शहर में तू लेकर हुनर बैठा है

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